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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः वह अव्यवहित पूर्व पूर्वकी स्थिति उपर उपर परले परले प्रस्तारो या कल्पयुगलोंमे जघन्या स्थिति हो जाती है, इस सूत्र में पूर्व सूत्रसे अधिक शतके ग्रहणको अनुवृत्ती चली आ रही है। इस कारण साधिक का समीचीनज्ञान हो जाता है। यह अधिकका अधिकार विजय आदि अनतरोंतक जान लेना चाहिये । अर्थात्-सौधर्म और ऐशानमें जो साधिक दो सागर स्थिति कही जा चुकी है वह स्थिति कुछ अधिक यानी एक समय अधिक होकर सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पोमें जघन्यस्थिति हो जाती है। बारहमे स्वर्गतक एक तो साधिकपना गाँटका ही है, दूसरा एक समय अधिकपना यह संपूर्ण वैमान निकों की जघन्य स्थितियों में लागू करलिया जाता है। इस सूत्रमें अव्यवहित इस अर्थका वाचक "अनन्तरा" इस पदका कथन करना तो व्यवहित पूर्वोकी निवृत्तीके लिये है। यदि "पूर्वापूर्वी" यों इतना ही कथन कर दिया जायगा तब तो व्यवधान युक्त हो रहीं पूर्वस्थितियोंके ग्रहण होजानेका भी प्रसंग होगा। क्योंकि व्यवधानयुक्त उन पहिले पदार्थो में भी पूर्व शब्दकी प्रवृत्ति होरहीं देखी जाती है। जैसे कि गथुरासे पटना पूर्वदेशवर्ती है। यहां सैकडों कोसका व्यवधान पडरहे पदार्थको भी पूर्व कह दिया गया है । अतः व्यवहित पूर्व सौधर्म, ऐशानोंमें जो उत्कृष्ट स्थिति है वह लान्तवकापिष्टोंकी जघन्य स्थिति हो जायगी। इस प्रकार के अनिष्ट अर्थोकी प्रतीतियां नहीं होने पाती है। तब तो अनन्तरा शब्दका सूत्र में उपादान करना सफल है । नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति कही जा चुकी है । जघन्य स्थितिको अभीतक सूत्रमें नहीं कहा गया है । अतः लघु उपाय करके प्रकरणप्राप्त नहीं भी होरहीं नारकियोंकी स्थितिको समझान की इच्छा रख रहे सूत्रकार अग्रिमसूत्रको कहते हैं । नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥३५॥ दूसरी वंशा तीसरी मेघा आदि सातवीतक छह पृथिवियोमें नारकी जीवोंकी अव्यवहित पूर्वपूर्वकी स्थिति परले परले प्रस्तारों और नरकोंमें जघन्य हो जाती है। अर्थात्-पहिली पृथिवीको उत्कृष्ट होरही एक सागरोपम आयु दूसरे नरकमें जघन्य समझी जाती है । इसी प्रकार नीचे नीचे की ओर लगा लेना । एक समय अधिक जोड लिया तो अच्छा है। अन्यथा भव परिवर्तनमें कठिन समस्या उपस्थित होजायगी। किमर्थ नारकाणां जघन्या स्थितिरिह निवेदितेत्याह । यहाँ किसी का कटाक्ष है कि प्रकरणके विना ही नारकियोंकी जघन्यस्थितिका यहाँ किसलिये निवेदन किया गया है अर्थात् कतिपय प्रकरणकी बातें छूटी जा रही हैं और अप्रकृतोंको स्थान दिया जा रहा है। यह कौनसा न्याय है ? व्रती या आश्रित जनोंको आहार दान नहीं देकर ठलुआ भरपिट्टो मनुष्यों को सादर भोजन कराना उचित नहीं है । इस प्रकार सूत्रकारके ऊपर आक्षेप प्रवर्तने पर श्रीविद्यानंद स्वामी समाधानकारक वातिकको कहते हैं ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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