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तत्त्वार्थश्लोकवातिके
सूत्र में पडे हुये समुच्चय अर्थवाचक च शद्वकरके दूमर दूसरे अग्न्याभ सूर्याभ, आदिक देव गणों का समुच्चय कर लिया जाता है । सारस्वत आदिकों के आठ अन्तरालों में वर्त रहे अग्न्याभ, सूर्याम आदिक देवगण दो दोकी द्वन्द्ववृत्तिसे स्थित होरहे विश्वास कर लेने योग्य हैं । उसी बात को स्पष्ट रूपसे इस प्रकार जानलो कि सारस्वत और आदित्य के अन्तरालमे दो अग्न्याभ और सूर्याभजाति के कई विमान विरचित हैं। तथा आदित्य और वन्हि के मध्य में चन्द्राभ और सत्याभ देवगण हैं । वन्हि और अरुणों के अन्तराल में श्रेयस्कर और क्षेमंकर इन दो जातिके लौकान्तिक भेद वस रहे हैं । अरुण और गर्दतोय के अन्तराल में वृषभेष्ट और कामचार इन दो मण्डलियों का निवास है । गर्दतोय और तुपित के बोचमे निर्माणरजः और दिगगन्तरक्षित देवगणों के स्थान हैं। तुषित और अव्याबाधके बीच में आत्मरक्षित और सर्वरक्षित जातिके लौकान्तिक देव मण्डल हैं । अन्याबाध और अरिष्टके अन्तर स्थान में मरुत् और वसु निवास कर रहे हैं। अरिष्ट और सारस्वत के अन्तराल में अश्व और विश्व जाति के देवगण बस रहे हैं । वे सारस्वत, अग्न्याभ आदिक ये सब विमानों के नाम हैं, उन विमानों का सहचरपना होनेसे उनमें निवास करने वाले देवों के भी प्रवाहमुद्रया सारस्वत आदिक नाम कहे जाते हैं ।
तत्र सारस्वताः सप्तशतसंख्याः, आदित्याश्च सप्तशतगणनाः, बन्हयः सप्तसहस्राणि सप्ताधिकानि अरुणाश्च तावंत एव, गर्दतोया नवसहस्राणि नवोत्तराणि, तुषिताश्च तावंत एव. अव्याबाधा एकादश सहस्त्राण्येकादशानि, अरिष्टा अपि तावंत एव । च शद्वसमुच्चितानां संख्योच्यतेअग्न्याभे देवाः सप्तसहस्राणि सप्ताधिकानि, सूर्याभे नवनवोत्तराणि, चन्द्राभे एकादशैकादशोत्तराणि, सत्याभे त्रयोदश त्रयोदशोत्तराणि, श्रेयस्करे पंचदशपंचदशोत्तराणि, क्षेमंकरे सप्तदश सप्तदशोत्तराणि वृषभेण्डे एकोनविंशत्ये कोनविंशत्यधिका, कामचारे एकविंशत्येकविंशत्यधिकानि नि णरजसि त्रयोविंशतित्रयोविंशत्यधिकानि दिगंतरक्षिते पंचविंशतिपंचविंशत्यधिकानि, आत्मरक्षिते सप्तविंशतिसप्तविंशत्यधिकानि सर्जरक्षिते एकान्नत्रिशदेकान्नत्रिंशदधिकानि, मरुति एकत्रिंशदेकत्रिंशदधिकानि, वसुनि त्रस्त्रिशत्त्रयस्त्रशदधिकानि, अश्वे पंचत्रिशत्पंचत्रिंशदधिकानि विश्वे सप्तत्रिंशत्सप्तत्रिंशदधिकानि । त एते चतुविशतिलौकान्तिकगणाः समुदिताः चत्वारिशतसहस्राणि अष्टसप्ततिश्च शतानि षडुत्तराणि ।
अव लौकान्तिक देवों की संख्याको गिनाते हैं । उन चोवीस गणों में सारस्वत देवों की संख्या सात सौ है । और आदित्यों की गणना भी सात सौ ही समझनी चाहिये । बन्हिगण के देवों की संख्या सात अधिक सात हजार है। अरुण जाति के देव भी उतने ही यानी सात हजार सात हैं। गर्दतोय विमानों में रहनेवाले देव नौ ऊपर नौ हजार हैं। तथा तुपित भी उतने ही यानी नौ हजार नौ हैं । अव्याबाध देवगण में ग्यारह हजार ग्यारह देवगण हैं। अरिष्ट भी उतने ही यानी ग्यारह हजार हैं । च शुद्ध से समुच्चय कर लिये गये अग्न्याभ आदि देवों की संख्या अब कही