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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः अन्धकार का पिण्ड उभर रहा है। वह ऊपर की ओर क्रमक्रमसे वृद्धि करके बढ़ता जा रहा मध्य में और अन्त में संख्यात योजन मोटा होजाता है । पुनः शिखर के समान घट कर ब्रह्म स्वर्ग सम्बन्धी पहिले पटलके मध्यवर्ती अरिष्ट विमान के नीचे भागमें एकत्रित होता हुआ मुगेकी कुटी (कुडला) के समान अन्धकार स्थित होगया है । भावार्थ-मसजिदों की शिखर या भुसभरने की बुरजी जैसे नीचे गोल होकर क्रमसे ऊपर को फैलकर बढ़ती हुई पुनः शिखाऊ ऊपर जाकर घट जाती है । उसी प्रकार इस अन्धकारस्कन्ध की रचना समझना । धूम या काजल के समान अन्धकार भी पुद्गल को काले रंगवाली पर्याय विशेष है। कतिपय अन्धकार तो प्रकाशक पदार्थोंसे नष्ट होजाते हैं । किन्तु पुद्गल की सुमेरु, सूर्य, कुलाचलों आदिके समान यह अन्धकारका पिण्ड स्वरूप अनदि अनिधन पर्याय है। उष्ण पदार्थ शीतस्पर्शका नाशक है । परन्तु शीतद्रव्य भी उष्णता को समूल नष्ट कर सकता है । इस अन्धकार परिणति पर सूर्य या अन्य विमान आदि के प्रकाशोंका प्रभाव नहीं पडता है । वैशेषिकों के यहां अन्धकार जैसे कोई भाव पदार्थ नहीं होकर तेजका अभाव पदार्थ तुच्छ माना गया है । वैसा जैन सिद्धांत नहीं है । धूलो पटल, काजल, धूमरेखा, बाष्प आदिके समान अन्धकार भी पुद्गल को विशेष परिणति है । मसालके ऊपर निकल रहे काले धूयेंको जैसे मसाल की ज्योति नष्ट नहीं कर देती है, अथवा आंधींके आने पर लाल पीले रेत को सूर्यप्रभा कोई नष्ट नहीं कर देती है, प्रत्युत प्रकाशक पदार्थ उन काले पीले, धौले पदार्थोंको उन्हीं के ठीक रंग अनुसार प्रकाशित कर देते हैं। उसी प्रकार काली स्याही को धूलके समान फैल रहे इस गाढ़ अन्धकार को प्रकाशक पदार्थ नष्ट नहीं कर पाते हैं। भले ही उसके ठीक रूप अनकल उसको जतादें। काले रंग की भींत या कपडे पर जो प्रकाशक पदार्थ का प्रभाव है, वही दशा यहां समझना । अरुण समुद्रके सूर्य या चन्द्रमा इस अन्धकारका बालाग्र भी खण्डन नहीं कर सकते हैं । पुनः उस एकत्रित हुये अन्धकार के ऊपर अरिष्ट नामक इन्द्रक विमान के निकटवत्तिनी होती संती अन्धकार की आठ पंक्तियां उठ कर झुकती हुई फैल रहीं हैं। वहां चारों भी दिशाओं में दो दो होकर द्वन्द्व को प्राप्त हुई तिरछी लोक पर्यन्ततक चली गयी हैं । उन अन्धकार पंक्तियोंके अन्तरालमें पूर्वोत्तर दिशाके कोने ईशान आदि विदिशा या दिशाओं में सारस्वत आदिक विमान या देवगण यथाक्रनसे व्यवस्थित होरहे समझलेने चाहिये । - ---- च शद्वसमुच्चिताः सारस्वताद्यंतरालवर्तिनः परेऽग्न्यामसूर्याभादयो द्वंद्ववृत्त्या स्थिताः प्रत्येतव्याः, तद्यथा । सारस्वतादित्ययोरंतरालेऽग्न्याभसूर्याभाः, आदित्यवन्हयोश्चंद्राभसत्याभाः, वन्ह्यरुणयोः श्रेयस्करक्षेमकराः, अरुणगर्दतोययोवृषभेष्टकामचाराः, गर्दतोयतुषितयोनिर्माणरजो दिगंतरक्षिताः, तुषिताव्याबाधयोरात्मरक्षितसर्वरक्षिताः, अव्याबाधारिष्टयोमरुद्वसवः, अरिष्टसारस्वतयोरश्वविश्वाः, । तान्येतानि विमानानां नामानि तन्निवासिनां च देवामा तत्साहचर्यात् ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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