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तत्वार्थ लोकवार्तिक
परिज्ञात कर लिये जाते हैं। हां, अप्रामाणिक, विसम्बादी उपदेशोंसे सदा बचते रहना चाहिये । नहीं तो अज्ञानकूपमें पतन होना अनिवार्य समझो ।
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अब श्री उमास्वामी महाराज विशेषतया ज्योतिष्क विमानोंकी और विमानोंके साथ हो रही ज्योतिष्क देवोंकी गति के विशेषका प्रतिपादन करने के लिये प्रवचनैकदेश अग्रिम सूत्रका उच्चारण करते हैं ।
मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३ ॥
ढाई द्वीप और दो समुद्रों के समुदित स्थानस्वरूप पैंतालीस लाख योजन लम्बे, चौडे, गोल मनुष्यलोक में ( के ऊपर ) ज्योतिष्क देव सुदर्शन मेरुकी प्रदक्षिणा करते हुये, विश्रान्ति लिये विना सतत भ्रमणरूप गतिको करते रहते हैं । आधार और आधेयमें एकताका उपचार कर लेनेसे ज्योतिष्क देवों करके आरूढ हो रहे विमान भ्रमण करते रहते हैं, यों सूत्रका अर्थ कर लेना चाहिये ।
ज्योतिष्का इत्यनुवर्तते । नृलोक इति किमर्थमित्यावेदयति ।
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पूर्व सूत्र " ज्योतिष्काः " इस पदकी अनुवृत्ति कर ली जाती है । अतः इस सूत्र का यह अर्थ हो जाता है कि मनुष्यलोक में मेरुकी प्रदक्षिणा कर रहे नित्य गतिवाले ज्योतिष्क देव हैं । कोई विनीत श्रोता प्रश्न करता है कि श्री उमास्वामी महाराजने सूत्रमें " नृलोके " इस प्रकार अधिकरण वाचकपद किस प्रयोजनकी सिद्धि के लिये प्रयुक्त किया है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर श्री विद्यानन्द स्वामी शिष्य प्रबोधनार्थ अग्रिमवार्तिकका आवेदन कर रहे हैं ।
निरुक्त्या व सभेदस्य पूर्ववद्गत्यभावतः ।
ते नृलोक इति प्रोक्तमावासप्रतिपत्तये ॥ १ ॥
पूर्वी दो निकायें हो रहे भवनवासी और व्यन्तरों के समान शब्दनिरुक्ति द्वारा ज्योतिषियों के विशेष आवास स्थानों की ज्ञप्ति नहीं हो सकती है । अतः ज्योतिषियों के आवासकी प्रतिपत्ति करानेके लिये सूत्रकारने “ नृलोके " ऐसा अधिकरण ठीक कहा है । अर्थात् — मेरुकी प्रदक्षिणा देते हुये नित्यगतिको कर वे ज्योतिष्क देव मनुष्यलोक में ही हैं । यद्यापे नृलोकसे बाहर भी असंख्याते ज्योतिष्क हैं । किन्तु वे नित्यगतिमान् नहीं होते हुये स्थिर हैं । इस कारण नित्यगतिवाले ज्योतिष्क और नृलोके इन दोनों पदोंमें एत्रकार लगाकर अनिष्ट अर्थ की व्यावृत्ति कर लेनी चाहिये । एवकार तो बिना कहे ही बीच में कूद पडता है ।
न हि ज्योतिष्काणां निरुक्त्यावासप्रतिपत्तिर्भवनवास्यादीनामिवास्ति यतो नृलोक इत्यावासप्रतिपत्त्यर्थे नोच्यते क पुनर्वृलोके तेषामावासाः श्रूयंते !