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तत्वार्यचिन्तामणिः
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जाता
भवनवासियोंक आवास बने हुये हैं । शेष बचे हुये असुरकुमार और राक्षसों के आवास तो पंकबहुल1 भागमें हैं। तीसरे अब्बहुलभागमें तीस लाख नरक हैं । तथा असंख्यात योजन लम्बे, चौडे, और ऊंचाई में मेरुसम एक लाख चालीस योजन मध्यलोक में भी द्वीप, पर्वत, समुद्र, देश, ग्राम, नगर, तीन ओर पथत्राला त्रिक, चार ओर मार्ग जानेवाले चौक, चौकौर प्रान्त, घर, आंगन, गली, कूंचा, सरोवर, उद्यान ( बगीचा ) देवस्थान, गुरुकुल, वसतिका, शून्यगृह, प्राचीन खण्डहर आदिक असंख्याते लाख उन व्यन्तरोंके आवासों को शास्त्रोंमें वर्णन किया है । अर्थात् — द्वीप, समुद्र, आदिमें असंख्याते अकृत्रिम स्थान, अनादि, अनन्त, कालतक रचे हुये हैं। हां, गली, कूंचे, सरोवर, उपवन, खण्डहर, शून्यगृह आदिमें भी क्रीडातत्पर व्यन्तरोंके अनेक कृत्रिमस्थान नियंत होरहे हैं । आजकल भी अनेक स्थलोंपर व्यन्तरदेवोंका आवास या उपद्रव होरहा, कचित् अनुग्रह हुआ सुना है । वह बहुभाग सत्य है । हां, वंचक धूर्तपुरुषोंने जो मायाजाल रच रक्खा है अथवा अनेक 1 बालक, स्त्री, पशुओंमें भूतबाधा, (खोर) की आकुलताओंकी जो भरमार छारही है, उसमें तथ्यांश अत्यल्प है । जगत् में भोली भाली जनताको ठगनेके लिये स्याने तांत्रिक, मांत्रिक, पुरुषोंने व्यर्थका प्रपंच अधिकतर फैला रखा है । अखण्ड सम्यग्दर्शन सूर्यके विना मिध्यात्व मोह अंधकारका भला विनाश कैसे हो सकता है ? । उन नगरोंकी विशेष विशेष संख्यायें तथा व्यन्तरेन्द्रों के परिवार या विभूतिविशेष की आगम अनुसार प्रतिपत्ति कर लेनी चाहिये, जैसे कि पूर्व में भवनवासियों के भवनसंख्या परिवार, विभूति, आदिको आगम अनुसार सपझ लेना स्वीकार कर चुके हो। त्रिलोकसार आदि ग्रन्थोंमें इनका विशेष वर्णन मिलता है । भवनवासियों के सात करोड बहत्तर लाख भवनों में एक एक में असंख्याते देव निवास करते हैं । किन्तु व्यन्तरोके असंख्याते नगरों में संख्याते देव या किसी किसीमें असंख्याते देव भी बस रहे हैं । " तिण्णिसय जोयणाणं दिहिदपइरस्स संखभागमिरे। भौमाणं जिणगेहे गणणातीदे णमंसाभि " इस त्रिलोकसारकी गाथा अनुसार उक्तध्वनि निकलती है । आवास स्थानों को समझने के लिये वितरणिलयतियाणि य भवणपुरावासभत्रणणामाणि दीवसमुद्दे दहगिरितरुम्हि चित्तवणिम्हिकमे । उड्डगया आवासा अयोगया वितरण भवणाणि, भवणपुराणि य मज्झिनभागगया इदि तियं णिलयं ॥ चित्तवइरादु जावय मेरुदयं तिरियलोयवित्थारं, भोम्मा हति भवणे भवणपुरावासगे जोग्गे ॥ ये तीन गाथायें उपयोगी हैं । अतीन्द्रिय ज्ञानीको प्रत्यक्ष होरहे सूक्ष्म, व्यवहित, विप्रकृष्ट, पदार्थोंमें भी यद्यपि कतिपय युक्तियोंका प्रवेश है, फिर भी प्रतिवादियों का विशेष आक्षेप नहीं प्रवर्तनके कारण और अन्य ग्रन्थोंमें विस्तृत कथन होनेसे यहां सविस्तर निरूपण नहीं किया गया है 1 अत्यधिक मनोहर दृश्योंका कितना ही अधिक वर्णन किया जाय, जिनेन्द्र गुणकीर्तन के समान वद अत्यल्प ही गिना जायगा । अतः प्रथम हीसे संकोचपर संतोष कर लेना अच्छा जचता है ।
अब तीसरे निकायकी सामान्यसंज्ञाका निर्देश करने के लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं ।
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