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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
काय ये दो इन्द्र हैं, गन्धर्व जातीय व्यन्तरोंके नाथ गीतरति और गीतयशा ये दो इन्द्र हैं, यक्ष जातीय व्यंन्तरोंके अधीश पूर्णभद्र और माणिभद्र ये दो इन्द्र हैं | राक्षस जातीय असंख्याते व्यन्तर देवोंके ईश्वर भीम और महाभीम दो इन्द्र है । पिशाच नामक व्यन्तरोंके अधीश्वर काल और महाकाल दो इन्द्र हैं । भूतोंके आज्ञापक प्रतिरूप और अप्रतिरूप दो दो इन्द्र हैं । इस प्रकार इन असुरकुमार, किन्नर आदि देवोंके एक एक ही प्रभुके नहीं होनेसे वे देव स्तोकपुण्यवाले और वे प्रभु भी स्तोक पुण्यवाले निश्चित किये जाते हैं । " अधिकस्याधिकं फलम् " यह कचित्की नीति यहां लाभप्रद नहीं है । स्त्रीके एक पति समान प्रजाजनों का एक पति ही बना रहे यही सर्वतोभद्र है । अनेक सदस्योंकी बहुसम्मति या सर्वसम्मति के अनुसार हो रहे कार्यों का अनुमोदन करनेवाले महाशय भी एक प्रमुताकी नीतिका उल्लंघन नहीं कर सके हैं । इत्यलं प्रपंचेन ।
इन देवोंके सुख किस प्रकारका है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तनेपर श्री उमास्वामी महाराज अगले सूत्रको उतारते हैं।
कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥७॥ ऐशान नामक स्वर्गतक काय द्वारा मैथुन सेवन करनेवाले देव हैं । अर्थात्-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क इन भरपूर तीनों निकायोंमें और सौधर्म, ईशान, स्वर्गसम्बन्धी देवोंमें मनुष्यों के समान काय द्वारा देवदेवियों के मैथुन व्यवहार है ।
प्रतिपूर्वाञ्चरेः संज्ञायां घञ् प्रविचरणं प्रवीचारो मैथुनोपसेवनं । काये प्रवीचारो येषां ते कायमवीचाराः । असंहितानिर्देशोऽसंदेहाथः । ऐशानादित्युच्यमाने हि संदेहः स्यात् किमाडंतर्भूत उत दिक्छरोध्याहार्य इति विपर्ययो वा स्यात् । ऐशानात् पूर्वयोरित्यनुवर्तमानेनाभिसंबंधात् । असंहितानिर्देशे तु नायं दोषः ।
प्रति उपसर्ग पूर्वक चर धातुसे संज्ञा अर्थमें घञ् प्रत्यय किया गया है । प्रविचरणभाव ही प्रवीचार है, इसका अर्थ मैथुनका उपसेवन करना है। जिन देवोंका प्रवीचार कायमें होता है वे देव कायप्रवीचार हैं, यों वहुव्रीहि समात कर लिया है। इस सूत्रमें आनिपात और ऐशान इन दो पदोंमें संधि करके नहीं कथन करना तो असंदेहके लिये है। यदि दोनोंके स्थानमें ऐच एकादेश कर ऐशानात् यों सूत्र कहा गया होता तो श्रोताओंको संदेह हो सकता था कि यहां आङ् अन्तर्भूत छिपा हुआ है ? अथवा क्या आङ् छिपा हुआ नहीं है ? ऐसी दशामें पूर्व प्रत्यक् आदि दिशावाचक शब्दका अध्याहार करने योग्य है । ऐशानसे पूर्व दिशातक यों अर्थ होगा तभी " अन्यारादितरर्तेदिकशद्वाञ्च्तरपदाजाहि युक्त ” इस सूत्रद्वारा ऐशानात् यह पंचमी विभक्ति होसकती है । अथवा पूर्वयोः इस पदकी पूर्वसूत्रसे अनुवृत्ति करके ऐशानसे पूर्ववर्ती देवोंमें कायप्रवीचार यों