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________________ तस्वार्थ लोकवार्तिके aat इन्द्रौ येषां ते द्वींद्रा इत्यंतनतवीप्सार्थो निर्देशः । द्विपदिका त्रिपदिकेति यथा वीप्सायां नो विधानादिह वीप्सागतिर्युक्ता न प्रकृते किंचिद्विधानमस्ति । तर्हि सप्तपर्णादिवद्भविष्यति वीप्साविधानाभावेपि वीप्सा संप्रत्ययः । पूर्वयोर्निकाययोद्वैौ द्वाविंद्रौ देवानामिति निकाय निकायभेदविवक्षावशादाधाराधेयभावो विभाव्यते । ५२० 1 निकायवाले जिन देवोंके दो दो इन्द्र हैं वे देव दो इन्द्रोंवाले हैं, इस प्रकार साकल्येन व्यापने की इच्छा रखते हुये पुनः पुनः कथन करना स्वरूप वीप्साको अन्तरंग गर्भमें प्राप्त कर इस सूत्रका अर्थ निर्देश किया जाता है । कोई आक्षेप करता है कि जिस प्रकार द्विपदिका, त्रिपदिका, द्विशतिका आदि पदोंमें “ पादशतस्य संख्यादेर्वीप्सायां वुन् लोपश्च " इस सूत्र करके वुन् प्रत्ययका विधान होजानेसे यहां वीप्साका परिज्ञान होना समुचित है । किन्तु प्रकरणप्राप्त "tal: इस पद कोई प्रत्ययका विभाग नहीं श्रूयमाण है । ऐसी दशा में यहां वीप्साका अन्तर्गर्भ कैसे समझा जायगा ? अर्थात् द्वौ द्वौ पादौ ददाति इति द्विपदिकां ददाति, दुगुना दुगुना दो भागों को देरहा है, द्विपदिका शब्दसे दो पादका गीत समझा जाता है । जिस गीत या पदमें दो दो पादोंकी टेक गानी पड़ती है या तीन तीन पदोंकी टेक जहां गायी जाती है वह त्रिपादिका गीति है । पंक्तिबद्ध तीन तीन पायोंवाली लम्बी, चौडी, तिपाईको भी त्रिपादिका कह सकते हैं। यहां द्विपदिका, त्रिपदिका, शब्दों में वुन् प्रत्ययसे वसा अर्थ उक्त होजाता है । वु को अक आदेश कर देते हैं । किन्तु वैसा कोई प्रत्यय द्वीन्द्राः शब्दमें नहीं है। अब आचार्य कहते हैं कि तब तो सप्तपर्ण, अष्टापद आदि के समान वीप्सा वाचक प्रत्ययका विधान नहीं होते हुये भी वीप्सा अर्थकी भले प्रकार प्रतीति होजावेगी । जिस वृक्षके एक एक पर्वमें सात सात पत्ते लग रहे हैं वह वृक्ष सप्तपर्ण है, पंक्ति पंक्ति में आठ आठ पांववाल खेलनेका नकशा अष्टापद है, इसी प्रकार दो दो इन्द्रवाले निकाय द्वीन्द्र हैं । पूर्ववत्तीं दो निकायों में निवास कर रहे देवों के दो दो इन्द्र हैं । इस प्रकार निकायोंको कह रहे पूर्वयोः यह द्विवचनान्त सप्तमी और देवोंको कह रहे द्वीन्द्राः इस प्रथमान्त विभक्तिसे युक्त होरहे पदों के वाच्य अर्थोका निकाय और निकायी यानी समूह और समूहीके भेदकी विवक्षाके वशसे आधार आधेयभाव होजाना विचार लिया जाता है । पूर्वयोः शब्दको षष्ठी विभक्तिवाला पद माना जाय तो भी कोई क्षति नहीं है । अतः धान्योंकी राशि रुपयों का ढेर, रुपयेमें चांदी, मेलेमें मनुष्य इस ढंगसे अभिन्न पदार्थों में कथंचित् भेद, अभेदकी विवक्षा होजाती है “ सिद्धिरनेकान्तात् ” । " द्वींद्रा निकाययोर्देवाः पूर्वयोरिति निश्चयात् । तत्रैकस्य प्रभोर्भावो नेति ते स्तोकपुण्यकाः ॥ १ ॥ उक्त सूत्रका युक्तिपूर्वक अर्थ बार्त्तिकमें यों किया जाता है कि पूर्ववर्त्ती दो निकायों में बस रहे देव दो दो इन्द्रवाले हैं, यह सिद्धान्तशास्त्रद्वारा निर्णीत है । उन दो निकायोंमें केवल एक ही प्रभूका
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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