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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
लोकपाल देव उपज जाते हैं । विशिष्ट कार्यके उत्पादक अतिशयवाले कारणोंके नहीं होनेसे व्यन्तर
और ज्योतिष्क देव उन दो कल्पनाओंसे वंचित है । जहां कारण होगा वहीं कार्य उपजेगा । मध्यवर्ती निकायोंमें कारणोंके वश इन्द्र आदि आठ भेद हैं । किन्तु भवनवासी और कल्पवासियोंमें दशोंके हेतु सातिशय पुण्यविशेषोंका सद्भाव होनेसे दशों प्रकार जातिके देव पाये जाते हैं ।
अब कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है कि उन चारों निकायोंमें क्या एक ही एक इन्द्र है ? अथवा क्या कोई अन्य नियम ( अपवाद ) है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं।
पूर्वयोन्द्राः ॥६॥ पूर्वकी भवनवासी, व्यन्तर, इन दो निकायोंमें समुदित होरहे देव अपने प्रभु दो दो इन्द्रोंको धारनेवाले हैं । अर्थात्-दो दो इन्द्रोंके आधिपत्यमें इन देवोंकी टोलीको रहना पड़ता है । प्रत्येक देव तो एक ही इन्द्रके अधीन है । किन्तु समुदाय अपेक्षा यह कथन है । ___भवनवासिव्यंतरनिकाययोः पूर्वयोर्देवा द्वींद्रा न पुनरेकेंद्रा निकायांतरवदिति प्रतिपत्त्यर्थमिदं सूत्रं । पूर्वयोरिति वचनं प्रथमद्वितीयनिकायमतिपत्त्यर्थे, तृतीयापेक्षया द्वितीयस्य पूर्वत्वोपपत्तेः द्विवचनसामर्थ्याच्चतुर्थापेक्षया तृतीयस्य पूर्वत्वेप्यग्रहणादमत्यासत्तेः।
___ पूर्ववर्ती भवनवासी और व्यंतर इन दो निकायोंमें देव दो दो इन्द्रवाले हैं । किन्तु फिर ज्योतिष्क या कल्पवासी इन अन्य निकायोंके समान एक एक इन्द्रवाले देव ये नहीं है । इस सिद्धान्तका प्रतिपादन करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराजने यह सूत्र रचा है। चाहे हजारों, लाखों, असंख्यों, भी पदार्थ होवें उन सबका पूर्ववर्ती ( पहिला ) पदार्थ एक ही होगा । अतः प्रथम वाचक पूर्वशद्वकी एक वचनमें ही सामर्थ्य है । आद्य अर्थको कह रहे पूर्व शद्बका द्विवचन या बहुवचन अलीक ही समझा जाता है । किन्तु यहां सूत्रमें पूर्वयोः इस प्रकार द्विवचन ओस् विभक्तिवाले पदका वचन है, जो कि पहिली निकाय भवनवासी और दूसरी निकाय व्यन्तरदेवोंकी प्रतिपत्ति करनेके लिये है । प्रथमका प्रत्यासन्न होनेसे द्वितीयको द्विवचनकी सामर्थ्यसे पकड लिया जाता है । तृतीयकी अपेक्षा करके द्वितीयको पूर्वपना न्यायसे भी बन जाता है। द्विवचनकी सामर्थ्यसे पहिले और दूसरे निकायोंका पूर्वपना सुघटित है । यद्यपि चतुर्थ वैमानिक निकायकी अपेक्षासे तीसरी ज्योतिष्क निकायको पूर्वपना है, तो भी निकटवर्तिता नहीं होनेसे प्रथमके साथ तृतीयका ग्रहण नहीं किया जा सकता है । हां, निकटवर्ती होनेसे प्रथमका संगी द्वितीय बन जाता है। अर्थात्-" उपस्थित परित्यज्यानुपस्थितकल्पने मानाभावः " । प्रधानाध्यापकमें द्वित्वकी अनुपपत्ति होनेपर द्वितीयाध्यापक ( सेकिंड मास्टर ) को उसका संगी बना कर दोपनकी रक्षा कर ली जाती है । चौथे, पांचवे, अध्यापकको मिला कर नहीं।