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________________ ५१४ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके I लोप होकर वृद्धि करते हुये त्रायस्त्रिंश शब्द बना लिया जाता है। यहां कोई आक्षेप करता है कि सुघ्ने जातः स्रौघ्नः यहां सप्तम्यन्त आधारभूत स्रुघ्न ( आगरा नगर ) से उसमें उत्पन्न हुये देवदत्त आधेयका भेद है। अतः तद्वितवृत्ति सुलभतया होजाती है । किन्तु तेतीसमें उत्पन्न हुये त्रयस्त्रिंशदेव यहां आधार और आधेयमें कोई भेद नहीं दीख रहा है। मंत्री, पुरोहित, वाइसराय, वजीर, प्रधान, न्यायाधीश, आदि प्रतिष्ठित स्थानों ( पदों ) पर बिराज रहे जो ही देव त्रयत्रिंशत् हैं, वे ही त्रायस्त्रिंश हैं। कोई उन त्रयस्त्रिंशत् में उपजे हुये न्यारे देव नहीं हैं। इस कारण भेद नहीं होनेसे यहां अण प्रत्यय विधायक तद्वितवृत्ति कठिनता से भी नहीं बन सकती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस आक्षेप कोई सार नहीं है । क्योंकि संख्या नामक भाव और संख्या करने योग्य भाववान् पदार्थों के भेदको विवक्षा करने पर यहां आधारआधेयभाव बन जाता है । तेतीस नामकी संख्या उम देवोंका आधार और यथायोग्य कहे गये अनुसार गणना किये गये देव तो उस संख्या के आधेय हैं । इस प्रकार तद्वित वृत्तिका बनना बहुत अच्छा घटित होजाता है । अर्थात् – नैयायिकों के यहां निष्टत्व, वृत्तित्व या समवेतत्व सम्बन्धसे जैसे गुणमें गुणी ठहर जाता है, उसी प्रकार गुण, गुणीमें कथंचित् अभेदको माननेवाले जैनोंके यहां तो अतीव सुन्दरतासे संख्या में संख्येय ठहर जाता है । नैयायिक तो समवेतत्व आदि वृत्त्यनियामक सम्बन्धों करके आधेयोंमें आधारोंको धरते हैं । किन्तु स्याद्वादियों के यहां डोरोंमें वस्त्र या वस्त्रमें डोरे और शरीरमें हाथ पांव या हाथ पांवोंमें शरीर इस ढंगसे संख्या में संख्येयका निवास करना वृत्तिनियामक कथंचित् तादात्म्य सम्बन्धसे नियत होरहा है । अथवा कुछ अरुचि रही होय तो संतोषकारी उपाय यह है कि तेतीस देव ही त्रायस्त्रिंश हैं । इस प्रकार केवल निजप्रकृतिके अर्थको ही कहनेवाला स्त्राथिक अण् प्रत्यय भी यहां किया जासकता है । जात अर्थमें होनेवाला अण् प्रत्य स्वार्थ में भी होजाता है। क्योंकि "हृत ऐसा एकवचन नहीं कर हृतः ( तद्धिताः ) यों बहुवचस्वार्थ में भी नान्त अधिकार सूत्रका कथन किया है । वह बहुवचन व्यर्थ होकर ज्ञापन करता है तद्धित प्रत्यय होरहे हैं । जैसे कि अन्ते भवः अन्त्यः | अन्त्य एव अन्तिम, यहां स्वार्थमें डिमच प्रत्यय होकर अन्तिम शब्द बना है । भेषजमेव भैषजं, शीलमेव शैली इत्यादिक पदोंमें स्वार्थिक प्रत्यय हुये हैं | इन्हींके समान यहां त्रायस्त्रिंश शब्दमें अण् प्रत्यय स्वार्थको ही कह रहा है, जात अर्थको नहीं । परिषद्क्ष्यमाणा तत्र जाता भवा वा पारिषदाः परिषतद्वतां कथंचिद्भेदात्ते च वयस्यपीठमर्दतुल्याः । आत्मानं रक्षतीतीत्यात्मरक्षास्ते शिरोरक्षोपमाः । 21 सुधर्मा सभा या बाह्य परिषद, मध्यपरिषद, अभ्यन्तर परिषद, इस ढंगसे सभा या सभायें बखानी जावेंगी, उस ( उन ) सभामें सभ्य होकर उपज रहे अथवा सभाओं में सद्भावको धार रहे देव पारिषद हैं। अर्थात् — यद्यपि वस्तुतः विचारा जाय तो सभा कोई जड पदार्थ नहीं है। अनेक जीवों के समुदायको सभा कहते हैं । तथापि सभा और उस सभावाले देवोंका समुदाय समुदायीकी अपेक्षा है कथंचित् भेद होजानेसे जात अर्थ या भत्र अर्थ में परिषद् शब्दसे अण् प्रत्यय कर दिया गया 1
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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