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________________ तत्वाचिन्तामणिः देवोंसे पृथग्भाव प्रतीत हो रहा है । इस ही सिद्धान्तको श्रीविद्यानन्द स्वामी अग्रिम वार्त्तिक द्वारा युक्तिपूर्वक कह देते हैं। चतुर्वपि निकायेषु ते दशादिविकल्पकाः। कल्पोपपन्नपर्यंता इति सूत्रे नियामतः ॥१॥ चारों भी निकायोंमें वर्त रहे वे देव ( पक्ष ) दश, आठ, आदि विकल्पोंको धार रहे हैं । ( साध्य ) क्योंकि सूत्रमें ही कल्पोपपन्नपर्यन्त इस प्रकार नियम कर दिया गया है ( हेतु ) । सर्वत्र असंभवद्बाधकत्वात् इस युक्ति करके आगमोक्त सिद्धान्तोका निर्णय हो जाता है । चतुर्निकाया देवा दशादिविकल्पा इत्यभिसंबंधे हि वैमानिकानां द्वादशविकल्पांत:पातित्वप्रसक्तौ कल्पोपपन्नपर्यंता इति वचनानियमो युज्यते, नान्यथा । इन्द्रादयो दशमकारा एतेषु कल्प्यंत इति कल्पाः सौधर्मादयो रूढिवशान भवनवासिनः। कल्पेषूपपन्नाः कल्पोपपन्नाः साधनं कृता बहुलमिति वृत्तिः मयूरव्यंसकादित्वाद्वा, कल्पोपपत्राः पर्यते येषां ते कल्पोपपन्नपर्यन्ताः प्राग्वेयकादिभ्य इति यावत् । पहिले सूत्र और तीसरे सूत्रका दोनों ओरसे सम्बन्ध कर जब कि चार निकायवाले देव दश आदि भेदोंको धार रहे हैं, यह अर्थ बन बैठता है तो कल्पवासी और अहमिन्द्र इन सम्पूर्ण वैमानिक देवोंको बारह भेदोंके भीतर ही प्रविष्ट होने का प्रसंग आया । ऐसी दशामें सूत्रकारको एक ही अवलम्बनीय उपाय हो रहे “ कल्पोपत्नपर्यन्त " इत कथनसे मर्यादाकी नियति कर देना युक्त पडता है। अन्य किन्हीं भी पातालफोड उपायोंसे उस अनिष्टप्रसंगका निवारण नहीं हो सकता है । इन्द्र, सामानिक, आदिक दश प्रकार इन देवोंमें वस्तुभूत कल्पित किये जा रहे हैं । इस कारण ये देव या सौधर्म आदिक सोलह स्वर्ग कल्प कहे जाते हैं । यद्यपि भवनवासी, व्यंतर, और ज्योतिष्क देवोंके स्थानोंमें भी इन्द्र, सामानिक, आदि यथासम्भव दश या आठ प्रकार वस्तुभूत कल्पे जारहे हैं । तथापि रूढिके वशसे सौधर्म आदि सोलह स्वर्ग ही कल्प हैं । भवनवासी आदिकोंके स्थान कल्प नहीं हैं । रूढि शब्दोंमें धात्वर्थ स्वरूप क्रियाका घटित करना केवल व्युत्पत्तिके लिये ही शोभता है, अर्थाशमें नहीं । उससे अव्याप्ति, अति. व्याप्ति, असम्भव दोषोंका परिहार नहीं होपाता है और करना भी नहीं चाहिये । “कल्पोपपन्ना" इस शब्दमें सप्तमी तत्पुरुष समास तो कल्पोंमें उपपाद जन्म द्वारा उपज चुके यों कर लेना चाहिये । " साधनं कृता बहुलं " इस सूत्रसे यहां तत्पुरुषवृत्ति होजाती है। यद्यपि " नर्भिन्नः नखभिन्नः स्वेन कृतं स्वकृतं " इत्यादि स्थलों पर साधनवाची शब्दका कत् प्रत्ययान्त पदके साथ उक्त सूत्र करके समास होपाता है। फिर भी बहुलं शब्दकी सामर्थ्यसे अधिकरणवाचक ससम्यन्त पदका भी . कृदन्त
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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