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________________ तवार्थचिन्तामणिः हैं । अन्यथा एक समय भी परचक्रसे स्व को रक्षित रखना असम्भव ही समझो । तिस कारण आदिम तीन निकायोंमें देवोंके कृष्ण, नील, कापोत और पीत इस प्रकार चार लेश्यायें होती हैं, यो सूत्रका अर्थ सुसंगठित हो जाता है। अन्यथा कस्मान्न भवंति तेषु देवा इत्युच्यते । सूत्रोक्त अर्थमें युक्तियोंकी अभिलाषा करता हुआ कोई संशयालु पण्डित प्रश्न करता है कि उन निकायोंमें देव अन्य प्रकारों करके किस कारणसे नहीं होते हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिमवार्तिक द्वारा समाधान कहते हैं। त्रिष्वायेषु निकायेषु देवाः सूत्रेण सूचिताः । संति पीतांतलेश्यास्ते नान्यथा बाधितत्वतः ॥१॥ आदिमें होनेवाली भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, इन तीन निकायोंमें समुदित हो रहे देव तो पीतपर्यन्त लेश्याओंको धार रहे विद्यमान हैं । इस प्रकार श्री उमास्वामी महाराज करके इस सूत्र द्वारा तत्त्वसूचन किया गया है । वे भवनत्रिक देव भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्कके अतिरिक्त अन्य प्रकारोंसे व्यवस्थित नहीं है । तथा पीतान्त लेश्याधारीपनके सिवाय अन्य प्रकार पद्मशुक्ल लेश्यावाले भी नहीं हैं । क्योंकि यों अन्य प्रकारोंसे भवनत्रिक देवोंकी व्यवस्था माननेपर बाधा प्राप्त हो जावेगी निर्बाध सिद्धान्त सूत्र अनुसार ही है। न तावद्देवाः सूत्रोक्ताः संतोन्यथा भवंति, सुनिश्चितासंभवद्भाधकत्वात्सुखादिवत् । नापि त्रिषु निकायेषु पीतांतलेश्याः सूत्रेणोक्तास्तदन्यथा पालेश्याः शुक्ललेश्याः वा भवंति, तत एव तद्वत् । सूत्रमें कहे जा चुके ढंग अनुसार प्रवर्त रहे संते तीन निकायके देव तो अन्य प्रकारोंसे नहीं सम्भव रहे हैं ( प्रतिज्ञा ) बाधक प्रमाणोंके नहीं संभवनेका बहुत अच्छा निश्चय किया जा चुका होनेसे (हेतु) अपने अपने अनुभूत किये जा रहे सुख, वेदना, शल्य, आदिके समान (अन्वयदृष्टान्त) इस अनुमान करके देवोंकी आगम द्वारा श्रूयमाण हो रही सूत्रोक्त व्यवस्थाको साध दिया गया है तथा तीन निकायोंमें पातपर्यंत लेश्यावाले देव जो इस सूत्रकरके कहे गये हैं। वे अन्य प्रकारोंसे पद्मलेश्यावाले अथवा शुक्ललेश्यावाले भी नहीं सम्भवते हैं (प्रतिज्ञा ) । तिस ही कारणसे - यानी बाधक प्रमाणोंके असम्भवका अच्छा निश्चय किया जा चुका होनेसे ( हेतु )। उसीके समान यानी अपनेसे अतिरिक्त प्राणियोंको अतींद्रिय हो रहे किन्तु निजको स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष द्वारा परिगृहीत हो रहे अपने सुख, दुःख, शोक, संतोष, भय, आदिके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार दो अनुमानोंकरके सूत्रोक्त उद्देश्यदल और विधेयदल दोनोंके प्रमेयको श्री विद्यानन्द आचार्यने अवधारणका ताला लगाते हुये सिद्ध कर
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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