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________________ ५०६ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके त्रिषु शब्दकी पराधीनतासे विपरिणत हो गया निकायेषु यह पद अपने संसर्गी देवाः इस प्रथमान्त बहुवचनके समानाधिकरणपनको कथमपि रक्षित नहीं रख सकता है । इस प्रकार आक्षेप प्रवर्तनेपर ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि अन्यपदार्थप्रधान या स्वपदार्थप्रधान दोनों प्रकार वृत्ति करनेपर भी कोई दोष नहीं आता है । देखिये, सबसे पहिले अन्य पदार्थको प्रधान रखनेवाली " चार हैं निकाय जिन्होंके " ऐसी बहुव्रीहि समासवृत्ति करनेपर तो निकायेषु यों सप्तमी बहुवचनान्त पदकी अनुवृत्ति की जा सकती है । क्योंकि त्रिषु इस प्रकार सप्तमी बहुवचनान्त पदके कथनकी वैसी सामर्थ्य है । कारण कि त्रित्व नामकी संख्याका गिनने योग्य संख्येयोंके विना ठहर जाना असम्भव है। निकायोंके अतिरिक्त किन्हीं अन्य घट, पट, उदासीन पदार्थोका यहां श्रुतज्ञान नहीं किया जा रहा है और उनका प्रकरण भी नहीं है । यहां त्रिषु पदके विशेष्य दल होने योग्य उन भवनवासी आदि तीन निकायोंको ही होना चाहिये। इस प्रकार अर्थकी सामर्थ्यसे सप्तमी बहुवचनान्त बनाकर निकाय शब्दकी अनुवृत्ति कर ली जा सकती है । तथा दूसरी स्वपदार्थप्रधान कर्मधारय वृत्तिके करनेपर भी तिस ही कारणसे यानी त्रिषुका श्रवण होनेसे उस निकायेषु की अनुवृत्ति की जा सकती है और कर्मधारय समासमें चतुर शब्दके समान निकायोंकी भी प्रधानता हो जानेसे चतुर संख्या नामके विशेषणसे रहित हो रहे केवल निकायोंकी अनुवृत्ति हो जाना घटित हो जाता है । इस सूत्रमें कण्ठोक्त की गयी त्रित्व संख्या करके निकायाः के पुच्छला हो रही चतुःसंख्याको बाधा युक्त कर दिया जाता है। अतः चार संख्या निकायेषुका पीछा छोड देती है । रही यह बात कि देवाः इसके साथ निकायेषुका सामानाधिकरण्य बिगड गया, इसपर हमारा यह कहना है कि निकाय ( समुदाय ) और निकायी (समुदायी) इनका कथंचित् अभेद हो जानेसे " देवाः पीतान्तलेश्याः ” यो सामानाधिकरण्य बन जाना तो विरुद्ध नहीं पडता है । यानी निकाय और निकायियोंकी भेदविवक्षा करनेपर निकायेषु देवाः यों भेदसूचक सलमी विभक्तिको बीचमें लाकर पीतान्तटेश्याःके साथ अभेद करते हुये वाक्यसन्दर्भ सुघटित हो जाता है । कोई आपत्ति होने का प्रसंग नहीं है । त्रिनिकायाः पीतान्तलेश्या इति युक्तमिति चेन्न, इष्टविपर्ययप्रसंगात । आदित इति वचने त्वत्र मूत्रगौरवमनिवार्य । नतो यथान्यासमेवास्तु ।। लघुता ही को अन्तिमलइय स्वीकार करता हुआ कोई पण्डित आक्षेप करता है कि “ आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः " इतना लम्बा सूत्र नहीं बना कर केवल “ त्रिनिकायाः पीतान्तलेश्याः " इतना छोटा सूत्र बनाना ही समुचित है । भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क इन तीन निकायवाले देव पीतपर्यंत लेश्याओंको धार रहे हैं । यह अभिप्रेत अर्थ प्राप्त हो ही जायगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि इष्ट अर्थसे विपरीत अर्थकी प्राप्ति हो जानेका प्रसंग बन बैठेगा । तीन निकायोंमें भवनवासी, व्यंतर, वैमानिक, या व्यन्तर, ज्योतिष्क, चैमानिक अथवा भवनवासी, ज्योतिष्क, वैमानिक, यों इन तीन
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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