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________________ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके ॥ ओं नमोर्हत्परमेष्ठिने ॥ अथ चतुर्थोध्यायः। अब श्री उमास्वामी महाराज अधोलोक और मध्यलोकका निरूपण कर चुकनेपर ऊर्बलोकका निरूपण करनेके लिये " तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्रग्रन्थके चौथे अध्यायका प्रारम्भ करते हैं । यद्यपि. ऊर्ध्वलोकनिवासी कल्पोपपन्न और कल्पातीत देवोंसे असंख्याते गुणे ज्योतिषी देव इस मध्यलोकमें निवास करते हैं । रत्नप्रभाके खरभाग और पंकभागमें असंख्यातासंख्यात भवनवासी और व्यन्तर निवास कर रहे हैं। फिर भी पूरे लोकके ठीक ऊपर नीचेके दो टुकडा कर देनेपर मध्यलोककी जड परसे डोरी निकल जाती है । अधोलोकके ऊपरका खरभाग और पंकबहुलभाग निकटवर्ती संयुक्त मित्र होनेसे उपचारतः ऊर्ध्वलोकमें गिन लिया जासकता है। दूसरी बात यह है कि ऊर्ध्वलोकमें विराज रहे अनन्तानन्त श्री सिद्धपरमेष्ठियोंके अनन्तवें भागसे भी थोडे ये भवनत्रिक देव हैं । अतः चतुर्निकायके देवोंका निरूपण करनेवाले इस अध्यायको ऊर्धलोकानुयोग कह देनेमें कोई अनुपपत्ति नहीं है अथवा " देवस्थान " इतना ही इस चौथे अध्यायके प्रतिपाद्य आधारका नाम रख लेना उपपत्तिपूर्ण है। ___ कई बार देव शब्द आया है । उन देवों का परिज्ञान कराना आवश्यक है । और अधोलोक, मध्यलोकका वर्णन करनेके पश्चात् क्रमप्राप्त ऊर्ध्वलोकका वर्णन करना भी अनिवार्य है । अतः सम्यग्दर्शन के विषयभूत जीवतत्त्वके कतिपय भेदोंके स्थान निर्णयार्थ श्री उमास्वामी महाराज चतुर्थ अध्या. यके आदिमें घनगर्जनोपम शब्द स्वरूप प्रथमसूत्रका उच्चारण करते हैं । देवाश्चतुर्णिकायाः ॥ १॥ देवगति नामकर्मके परवश हो रहे असंख्याते संसारी जीव देव इन भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक चार निकायों ( मण्डलियां ) को धार रहे विराज रहे हैं । देवगतिनामकर्मोदये सति दोव्यंतीति देवाः द्युत्याद्यर्थाविरोधात् । बहुत्वनिर्देशोंतर्गतभेदप्रतिपत्त्यर्थः । स्वधर्मविशेषोपपादितसामर्थ्यानिचीयंत इति निकायाः चत्वारो निकायाः येषां ते चतुर्निकायाः। कुतः पुनश्चत्वार एव निकाया देवानामिति चेत्, निकायिनां तेषां चतुःप्रकारतया वक्ष्यमाणत्वात् । ते हि भवनवासिनो, व्यंतरा, ज्योतिष्का, वैमानिकाश्चेति चतुविधानिकायिभेदाच निकायभेदा इति । नैक एव देवानां निकायो नापि द्वावेव त्रय एव वा, पंचादयोप्यसंभाव्या एव तेषामत्रांतर्भावात् । ___ नाम कर्मकी गति नामक प्रकृतिके उत्तरभेदस्वरूप देवगति संज्ञक नामकर्मका उदय होते संते जो दीवते रहते हैं, इस कारण वे जीव " देव " कहे जाते हैं । " दिवुक्रीडाविजिगीषाव्यव
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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