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तलाशोकवार्तिके
रिक वलधारी मनुष्य या देवता अथवा नौला, गरुड, मोरपक्षी भी सांपको जीत सकते हैं जीतना तो क्या मार भी देते हैं । किन्तु आप तो अनन्त हो रही संसारकी सन्तनका जय करनेसे अनन्तजित हैं " त्रैलोक्यनिर्जयावाप्तदुधर्म्यमतिदुर्जयं, मृत्युराजं विजित्यासीज्जिन मृत्युंजयो भवान् ” तीनों लोकके जीतनेसे जिस यमराजको खोटा अभिमान प्राप्त हो चुका है जो कि अतीव कठिनतासे जीतने योग्य है उस आयुष्यकर्मरूपी मृत्युराजको जीतकर हे जिन आप ही मृत्युंजय माने गये हैं। अर्थात्-यमराज नामका कोई एक देवता सबको मारनेवाला नहीं है। क्यों जी उसका मारनेवाला कौन है ? ब्रह्मा, विष्णु, महेशके वह अधीन है ? या उसके अधीन ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं ? सूर्यका पुत्र और यमुनाका भाई माने गये यमकी उत्पत्तिके प्रथम मृत्युयें कैसे होती थी ? धर्मराज, यमराजका क्या सम्बन्ध है ? क्या यमराजके पुत्र पुत्रियां अविनश्वर हैं ? या उनको मारनेवाला कोई दूसरा यमराज है ? इन संपूर्ण प्रश्नोंका पौराणिकोंकी ओरसे सन्तोषजनक उत्तर प्राप्त नहीं होता है । अतः आयुष्य कर्मके जीतनेकी अपेक्षा श्री जिनेन्द्र देव ही मृत्युंजय हैं " त्रिपुरारित्वमीशेशो जन्ममृत्यु जरान्तकृत " जन्म, जरा, और मृत्यु इन तीन नगरोंका अन्त कर देनेसे तुम जिनेन्द्र देव ही " त्रिपुरारि ” हो तुम ही ईश हो । त्रिकाल त्रिलोकवर्ती भिन्न भिन्न तत्त्वोंको युगपत् जाननेवाले केवलज्ञान नामक चक्षुको धार रहे तुम त्रिनेत्र हो । माथेमें तीसरे नेत्रका होना अलीक है । निर्माण कर्म शरीरमें दोही नेत्रोंको बनने देता है । विक्रियाशक्तिया विद्याबलसे भले ही दिखाऊ उत्तर आकार चाहे कैसे भी बनालो । ऐसे त्रिनेत्रपन या सहस्रनेत्रपनकी कोई विशेष प्रशंसा नहीं है " त्वामंधकांतकं प्राहुर्मोहांधासुरमर्दनात् , अर्द्धन्ते नारयो यस्मादर्द्धनारीश्वरोऽस्यतः ” वस्तुतः स्वयं अन्धा होरहा
और दूसरे सम्बधियोको मदोन्मत्त होकर अन्धा कर रहा मोह नामके अन्धासुरका मर्दन कर देनेसे है जिन भव्य जीव तुमको ही " अन्धकान्तक " कहते हैं । सर्वज्ञ होते हुये भी भविष्यमें देवोंके लिये दुःख प्राप्तिका नहीं ज्ञान रखने वाले वे ही पहिले किसीको अवध्य होनेका वरदान करें पुनः उसीको रथ बनाकर सारथी होकर बाण चलाकर वे ही उन त्रिपुरोंको मारें यह तथ्य वृत्तान्त नहीं प्रतीत होता है । तथा दिति माता किसीसे नहीं मारा जासके ऐसे पुत्रकी अभिलाषा करे और कश्यपके द्वारा पेट पर अंगुलियोंको फेरते रहने पर ऐसे पुत्रको उपजा देवे पुनः महादेव द्वारा उस अवश्य पुत्रका संहार किया जाय ऐसे कथानक प्रतीति की उच्च शिखरपर आरूढ होने योग्य नहीं है। अतः त्रिपुरारि और अन्धकासुर मर्दनका कथानक श्रीजिनेन्द्र देवमें जन्म, जरा, मृत्यु
और मोह राक्षसका क्षय कर देनेसे सुप्रतीत होजाता है । आठ कोसे आधे चार घातिया कर्मस्वरूप प्रबल शत्रु जिन अर्हन्त देवके नहीं हैं । अतः अर्ध+न+अरि अर्धनारीश्वर अन्ति परमेष्ठी हैं। आधा पुरुषका और आधा स्त्रीका यों एक शरीर बन कर चिर जीवित रहे या बडी भारी माहमाको पावे यह समझमें नहीं आता है । इसी प्रकार मोक्षपदमें आध्यासीन होनेसे शिव और पाप शत्रुओंका हरण करनेसे हर, लोकमें सुख करनेसे शंकर आदिक नाम भी जिनदेषके सुघटित हो जाते हैं । " शिवः