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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ४७३ यो ही सुनार सुन्दर भूषणोंको बना लेता है किन्तु सोना, चांदी, तांबेको मूलरूपसे नहीं. उपजा सकता है, हलवाई मनोहर पक्वान्नोंको बना लेता है किन्तु इनके उपादान कारण रस या खांडको स्वतंत्र नहीं बना सकता है। सुवर्णकार, अयस्कार, आदि नाम तो कोरे नामनिक्षेपसे हैं। रोटी, दाल, पेडा, वनके उपादान या सोना, चांदी, काठ, हीरा, मोती, मांस, रक्त, आदिको वे एकेन्द्रिय, या द्वीन्द्रिय आदि जीवही कर्मपरवश होरहे अपने अपने व्यक्त, अव्यक्त, पुरुषार्थ द्वारा बनाया करते हैं। सूर्य, चन्द्रमा, समुद्र, पर्वत, धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल, आदिका समुदाय रूप यह लोक किसी एक ही बुद्धिमान् करके बनाया गया नहीं है। दृष्टकृत्रिमविलक्षणतयेक्ष्यमाणश्च स्यात् कृत्रिमश्च स्यात् संभिवेशविशिष्ट लोको विरोधाभावात् । ततः सिद्धस्य हेतोः साध्येनाविनाभावित्वमिति मन्यमानं प्रत्याह । यहां उक्त अनुमानमें कोई नैयायिक पण्डित प्रतिकूल तर्क उठाता है कि हेतु रह जाय साध्य नहीं रहे । सुनिये, यह लोक कर्तासहित रूपसे देखे जा रहे कृत्रिम पदार्थोके विलक्षणपने करके देखा जा रहा होय, और सन्निवेशविशेषको धार रहा यह लोक कृत्रिम भी होय, कोई विरोध नहीं आता है। देखो धूम होयं और अग्नि नहीं होय यों प्रतिकूल तर्क उठा देनेसे कार्यकारणभावका भंग होजाना यह विरोध खडा हुआ है । अतः " अग्निमान् धूमात् " इस प्रसिद्ध अनुमानमें प्रतिकूल तर्क नहीं उठा सकते हैं किन्तु यहां लोकमें हेतुके रहने पर भी साध्यका नहीं रहना आपादन किया जासकता है। आप जैनोंने स्वयं कहा है कि अन्न, मांस, पाषाण, आदि पदार्थ उन चीजोंसे विलक्षण हैं जिनके कि बनाने वाले उच्च कोटिके कारीगर देस्वे जाते हैं फिर भी अन्न आदि पदार्थ एक इन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, आदि जीवोंके द्वारा बना लिये गये हैं तिस कारणसे इस तुम्हारे दृष्ट कृत्रिम विलक्षणतयाईक्ष्यमाणत्व हेतुका अपने साध्य होरहे कृत्रिमत्वाभावके साथ अनिनाभाव असिद्ध है इस प्रकार साभिमान माने चले जारहे नैयायिकोंके प्रति श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिम वार्तिक द्वारा समाधान वचनको कहते हैं। नान्यथानुपपन्नत्वमस्यासिद्धं कथंचन । कृत्रिमार्थविभिन्नस्याकृत्रिमत्वमसिद्धितः ॥ ७० ॥ हमारे इस हेतुका अन्यथानुपपत्तिसे सहितपना किसी भी ढंगसे असिद्ध नहीं है। क्योंकि कृत्रिम अर्थोसे विभिन्न हो रहे पदार्थों के अकृत्रिमपनकी प्रमाणोंसे सिद्धि हो रही है । भावार्थ-अन्न, काठ, सौना, हीरा, मांस, हड्डीको, भले ही वे एकन्द्रिय आदि नाना जीव बना लेवें । किन्तु सूर्य, चन्द्रमा, सुदर्शन मेरु, अलोकाकाश, कालव्य, लोक आदि अकृत्रिम पदार्थों को नाना जीव या एक जीव कथमपि नहीं बना सकते हैं । जैनसिद्धान्त अनुसार वृक्ष का जीव अपनी योगशक्ति द्वारा नोकर्म - 60
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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