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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके ___यथैव सन्निवेशविशिष्टत्वादिसाधनं न निरवयं व्यापकानुपलंभेन पक्षस्य बाधनात् तथा करणत्वाद्यनुमानमपि जगतामेककर्तृत्वे साध्ये विशेषाभावात् । तच्च समर्थितमेवेति नानुमानमाला निरवद्या विधातुं शक्या तस्याः प्रतिपादितानेकदोषाश्रयत्वात् । तत एवागमादपि नेश्वरसिद्धिरित्याह । जिस ही प्रकार ईश्वरकी सिद्धिमें वैशेषिकों द्वारा कहे गये सन्निवेशविशिष्टत्व, कार्यत्व, आदि हेतु निर्दोष नहीं हैं क्योंकि व्यापकके अनुपलम्भ करके पक्षकी बाधा दिखलायी जा चुकी है । अर्थात्-व्यापक हो रहे अन्वय व्यतिरेकके नहीं घटित होनेसे व्याप्य हो रहा कार्यकारणभाव भी नहीं घटित हो पाता है । अतः वैशेषिकोंकी प्रतिज्ञा बाधित हो जाती है । उस ही प्रकार करणत्व, क्रियात्व, आदि हेतुओंसे उपजाये गये अनुमान भी जगतोका एक कत्तीस जन्यपना साध्य करनेपर निर्दोष नहीं है कारण कि सन्निवेशविशेष आदि हेतु और करणत्व आदि हेतुओंमें कोई अन्तर नहीं है ।हेतुओंके उस हेत्वाभासपनका हम पूर्व प्रकरणोंमें समर्थन कर चुके ही हैं जिस कारण कि वैशेषिकोंके कई अनुमानोंकी माला निर्दोष नहीं की जा सकती है क्योंकि " १ द्वीपादयो बुद्धिमद्धेतुकाः सन्निवेशविशिष्टत्वात् घटवत्, २ क्षित्यादिकं कर्तृजन्य कार्यत्वात् पटवत् ३ करणादीनि कधिष्ठितवृत्तीनि करणादित्वात् वास्यादिवत् " इत्यादि अनुमानोंकी की गयी उस मालाको पूर्वमें कहे जा चुके व्यभिचार, भागासिद्ध, बाध, व्यापकानुपलम्भ, सिद्धसाधन, विरोध, साध्यविकलनिदर्शनत्व, व्यतिरेकाभाव आदि अनेक दोषोंका आश्रयपना है उस ही कारणसे अर्थात् अनुमानमालामें अनेक दोषोंके उपस्थित हो जानेपर बाधित पक्ष हो जानेसे आगमप्रमाणं द्वारा भी ईश्वरकी सिद्धि नहीं हो सकती है इस बातको ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक द्वारा कहते हैं । विश्वतश्चक्षुरित्यादेरागमादपि नेश्वरः । सिध्द्येत्तस्यानुमाननानुग्रहाभावतस्ततः॥६६॥ युजर्वेदके सत्रहवें अध्यायके उन्नीसवें मंत्र " विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतः पात् । संबाहुभ्यां धमति संपतत्रै_वाभूमी जनयन्देव एकः " और सत्ताईसवें मंत्र " यो नः पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा । यो देवानां नामधा एक एवत " संप्रश्न भुवनायन्त्यन्या ॥ तथा “ अपाणिपादो जवनो गृहीता, संसारमहीरुहस्य बीजाय" इत्यादिक आगम प्रमाणोंसे भी ईश्वरकी सिद्धि नहीं हो सकेगी क्योंकि तिस बाधितपक्षके हो जानेसे उन आगम वाक्योंका अनुमान प्रमाण करके अनुग्रह होनेका अभाव है । जिन आगमोंको अनुमान प्रमाणोंसे संवादकपना प्राप्त नहीं होता है वे आगम प्रमाणभूत नहीं माने गये हैं। न हि नैयायिकानां युक्त्यननुगृहीतः कश्चिदागमः प्रमाणमतिप्रसंगात् । न च युक्तिस्तत्र काचिब्यवतिष्ठत इति नेश्वरसिद्धिःप्रमाणाभावात् प्रधानाद्वैतादिवत् । ततः किं सिद्धमित्याह ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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