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________________ ४६० तत्त्वार्थकोकवार्तिक अग्निको साध्य किया जाय तब तो सिद्धसाधन दोष है। क्योंकि अग्निसामान्य तो पहिलेसे ही सिद्ध है व्याप्तिज्ञानद्वारा आग्निसामान्य जाना जा चुका है। यहां यदि अग्निविशेषको साधा जायगा तो महानसमें पर्वतीय पत्ते सम्बन्धी या वांस सम्बन्धी अग्निके नहीं होनेसे दृष्टान्त साध्यविकल हो जायगा विशेष अग्निको साध्य करनेपर हेतु व्यभिचारी भी हो जाता है । जैनोंके दोष उठानेका यही ढंग रहा तो सभी अनुमानोंका जगत्से उच्छेद हो जायगा चार्वाकमत फैल जायगा । अतः सामान्यविशेषको साध्यकोटिमें धरकर हमारा अनुमान है । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार मान रहे वैशेषिकके यहां भी वह कर्त्ताका सामान्य विशेष भी प्रसिद्ध हो रहीं सम्पूर्ण कर्ता व्यक्तियों में व्यापक हो रहा ही कोई सिद्ध हो जायगा । किन्तु फिर तुम्हारे घरमें ही अभीष्ट हो रहे अप्रसिद्ध विशेष कर्त्तव्यक्तिमें व्यापक मान लिया गया तो नहीं सिद्ध हो सकता है। जैसे कि नीव, बबूल, अमरूद, वट, आदि प्रसिद्ध विशेष व्यक्तियोंमें वर्त रहा वृक्षत्व नामका सामान्य विशेष तो मानने योग्य है। किन्तु घोडा, पडरा, जूता, टोपी, खाट, दीपक, आदि प्रसिद्ध व्यक्तियोंमें या खरविषाण आदि अप्रसिद्ध व्यक्तियोंमें वृक्षत्व नामका सामान्यविशेष नहीं साधा जा सकता है । अप्रसिद्ध हो रही अग्नियोंमें ठहर रहा मान लिया गया अग्निसामान्य तो किसी भी विचारशील विद्वान् करके नहीं साधा जाता है अन्यथा शीतल, नीरूप, अदाहक अग्निकी भी धूमहेतुसे सिद्धि बन बैठेगी । किन्तु देशविशेष या कालविशेष अथवा आकारविशेषोंसे परिमित हो रही प्रसिद्ध अभिव्यक्तियोंमें निष्ठित हो रहे ही उस अग्निसमान्यविशेष का साधन किया जा सकता है । अन्यथा यानी अप्रसिद्ध अलीक, अग्निके सामान्यविशेषको यदि साधा जायगा तो नित्य, व्यापक, अमूर्त, गुरु, अग्नि के सिद्ध हो जाने का भी प्रसंग होगा। द्रव्यत्व या सत्ताको अपेक्षा अग्नित्व धर्म उनका व्याप्य हो रहा विशेष है और सम्पूर्ण अग्निव्यक्तियोंकी अपेक्षा अग्नित्व जाति व्यापक हो रही सामान्य है इसी प्रकार द्रव्यत्वकी अपेक्षा तो विशेष हो रहा और आम्र, अमरूद आदि प्रसिद्ध व्यक्तियोंकी अपेक्षा सामान्य हो रहा वृक्षत्व धर्म भी सामान्यविशेष है ऐसे वृक्षत्व या अग्नित्वको तो साध्य बना लिया जाता है । किन्तु अशरीर, व्यापक, नित्य, सर्वज्ञ, हो रहा कोई • कर्ताविशेष अद्यापि प्रसिद्ध नहीं है। अतः कर्ता सामान्यविशेषको साध्य करनेपर भी करणादिपन हेतुसे सशरीर, अव्यापक, अल्पज्ञ कर्ताओंसे अधिष्ठितपना सिद्ध हो सकता है अन्य तुम्हारा इष्ट विशेष हो रहा कोई ईश्वर नहीं सध पाता है। तथा रूपोपलब्ध्यादीनामपि क्रियात्वेन प्रसिद्धकरणब्यक्तिव्यापिकरणसामान्यविशेषपूर्वकत्वमेव साध्यते नामसिद्धकरणब्यापि । व्यक्तिर्हि कचिन्मर्तिमती दृष्टा यथा दात्रादिछिदिक्रियायां, कचिदमृर्ता यथा विशेषणज्ञानादिविशेष्यज्ञानादौ । तत्र रूपोपलब्ध्यादौ करणसामान्य कुतश्चित्सिध्यति तदुपादानसामर्थ्य सिध्येत् तद्रव्यकरणं मूर्तिमत्पुद्गलपरिणामात्मकत्वाद्भावफरणं पुनरमूर्तमपि तस्यात्मपरिणामत्वादिति तस्य क्रियाविशेषात् प्रसिद्धस्य संज्ञाविशेषमात्रं क्रियते चक्षुः स्पर्शनं रसनमित्यादि । ततो भवतीष्टसिद्धिस्तावन्मात्रस्येष्ठत्वात् ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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