________________
४४०
तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
Aname
RomanianAAAD
है कि त्रिजगत्का निमित्तकारण ईश्वरको साध्य करनेमें कार्यत्व आदि हेतुओंका पहिले व्यभिचार दोष उठाना और फिर बाधित हेत्वाभास दोष उठाना यह मार्ग प्रशस्त नहीं है । हां, यह मार्ग सुंदर है कि वैशेषिकोंके अनुमानको झटिति नष्ट करनेवाले इस अनुमानकरके बाधित दोष उठाना चाहिये कि महेश्वर ( पक्ष ) स्थावर, बीज, आदि कार्योंकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण नहीं है । ( साध्य ) उनके साथ अन्वय व्यतिरेकोंके अनुविधानकी विकलता होनेसे ( हेतु ) यह निर्दोष अनुमान जैनोंकी
ओरसे समुचित प्रयुक्त किया जासकता है, केचित् विद्वानोंको स्थावर, हीरा, पन्ना, आदि करके व्यभिचार दोष उठाना अनुचित है। क्योंकि वैशेषिकोंके यहां स्थावर, समुद्रज, खनिज आदि पदार्थोंको भी पक्षकोटिमें डालकर उनको ईश्वरका कार्य मान लिया गया है वे एक एक अनके दाने या फूलकी पांखरी तक कोई ईश्वरकी इच्छा पर निर्भर मानते हैं । " नहि पक्षे पक्षसमे वा व्यभिचारः ” पक्ष या पक्षसममें दिया गया व्यभिचार दोषाधायक नहीं है, जब बाधक अनुमान द्वारा प्रतिपक्षीके बाध्य अनुमानका साक्षात् खंडन किया जा सकता है तो अनुमितिके कारण होरहे व्याप्तिज्ञान या परामर्षको बिगाडनेवाले व्यभिचार दोषका उठाना छोटापन है ।
अनेनैवानुमानेन व्यापकानुपलंभेन पक्षबाधोद्भावनीया कालात्ययापदिष्टत्वं च हेतोस्तथोद्भावितं स्यान्न पुनः पक्षीकृतैः स्थावरादिभिः साधनस्य व्यभिचारस्तत्रोद्भावनीयस्तस्यायुतत्वात् । एवं हि न कश्चिद्धतुरव्यभिचारी स्यात् कृतकत्वादेरपि शब्दानित्यत्वादौ पक्षीकृतैः शब्दैरेव कैश्चिद्वयभिचारस्योद्भावयितुं शक्यत्वात् ।
___" महेश्वरो स्थावराद्युत्पत्तौ न निमित्तं " इस ही अनुमान करके अन्वय, व्यतिरेक अनुविधान स्वरूप व्यापकके अनुपलंभ द्वारा वैशेषिकों के पक्षकी बाधा उठानी चाहिये, और तैसा होनेपर वैशेषिकोंके कार्यत्व आदि हेतुओंका कालात्ययापदिष्टत्व यानी बाधितहेत्वाभासपना भी उठाया जा चुका समझा जायगा, किंतु फिर वैशेषिकों द्वारा पक्षमें करलिये गये, स्थावर, जंगम, प्राणियोंके शरीर आदिकों करके कार्यत्व आदि हेतुओंका व्यभिचार तो वहां वैशेषिकोंके अनुमानमें नहीं उठाना चाहिये, क्योंकि पक्ष कर लिये गये स्थलों करके ही उस व्यभिचार दोषका उठाया जाना अयुक्त है। इस प्रकार के चित् विद्वान् यदि पक्षमें कर लिये गये स्थलों करके ही व्यभिचार दोष उठायंगे तब तो कोई भी हेतु विचारा व्यभिचारदोषसे रहित नहीं हो सकेगा । पक्ष किये गये पर्वतमें अग्निकी उपलब्धि नहीं होनेपर धूम हेतुको भी व्यभिचारी कहा जा सकता है । पक्षमें साध्य विवादापन्न हो ही रहा है । सर्वथा निर्दोष होकर प्रसिद्ध हो रहे कृतकत्व, सत्त्व, आदि हेतुओंका भी शब्दके अनित्यपन, परिणामीपन
आदिकी सिद्धि करनेमें पक्ष कर लिये गये शब्द करके ही कोई अल्लड पुरुष व्यभिचार दोषको उठ सकता है। ईर्षाल स्त्रियां इठलाती हुयीं सुंदर स्त्रियोंपर यों ही झूठ, मूठ, व्यभिचार दोषका आरोप कर बैठती हैं । एतावता वह दोष यथार्थ नहीं समझ लिया जाता है ।