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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
यथान्योन्याश्रयस्तद्वत्मकृतेपि हि साधने । कृतधीजनकत्वेस्य सिद्धतायां कृतत्वधीः ॥ ३७॥ ततोनैकांतिको हेतुरेष वाच्यः परीक्षकैः ।
कार्यत्वार्थक्रियाकृत्वप्रमुखोऽनेन वर्णितः ॥ ३८ ॥
जिस प्रकार सूर्य, चन्द्रमा, समुद्र आदि स्वरूप क्वचित् जगत्में अक्रियादी पुरुष के " किया गया " इस बुद्धिका जनकपना नहीं है, उसी प्रकार धूम आदिक हेतु भी अग्नि आदि साध्योंकी ज्ञाप्तिके कारण नहीं हो सकेंगे। अर्थात्-नवीन कुऐं, कोठियां, महल आदि कोंको बनता हुआ देख कर साधारण मनुष्योंके भी " ये किये गये हैं ” यह बुद्धि उपज जाती है । उसी प्रकार जीर्ण कुए, गृहोंके खंडहर, पुराने मंदिर, मूर्तियां, घडे, इन्टे, आदिमें भी “ ये किसी न किसी करके बनाये गये हैं " यह बुद्धि उपज जाती है। भले ही आधुनिक पुरुषोंने हजार वर्ष पहिले बने हुये पुराने खण्डहरोंके बननेकी क्रियाको आंखोंसे देखा नहीं है । किन्तु पृथिवी, सूर्य, चंद्रमा आदिमें किसी भी अक्रिया दीको " ये बनाये गये हैं " ऐसी बुद्धि नहीं होती है । अतः हेतु असिद्ध है । आचार्य समझाते हैं कि यो थोडासा अंतर तिस प्रकार पक्ष और दृष्टांतमें पडजानेसे धूम आदि भी अग्निका अनुमान नहीं करा सकेंगे । असिद्ध हेत्वाभासको उठाने वाले दूसरा कटाक्ष यों करते हैं कि जिस प्रकार धूम आदि हेतुओंको अग्नि करके स्वयं निर्मितपना सिद्ध होजाय तब तो वन्हि आदिकी बुद्धि कर देना होकर सिद्धता आवे और धूम आदिकी सिद्धता होजानेपर वन्हि आदिकी बुद्धि कराई जा सके । यों जिस प्रकार अन्योन्याश्रय प्रसिद्ध हेतुमें दिया जासकता है, उसी प्रकार प्रकरण प्राप्त सन्निवेशविशिष्टत्व हेतुमें भी परस्पराश्रय दोष दिया जा सकता है कि इस हेतुके द्वारा सूर्य, पशिबी आदिमें " किये गये हैं " इस बुद्धिका जनकपना सिद्ध होय तब तो सूर्य आदिमें कृतपनेकी बद्धि होय और सूर्य आदिमें किया गयापन सिद्ध होय तब " किये गये हैं ” इस बुद्धिका उत्पादक पना प्रसिद्ध होसके । अर्थात्-सन्निवेशविशिष्टत्व हेतुमें जैसा अन्योन्याश्रय दोष उठाया जाता है वैसा धम आदि प्रसिद्ध हेतुओंमें भी अन्योन्याश्रय जमाया जा सकता है । तिस कारणसे परीक्षक विद्वानों करके यह " सन्निवेशविशिष्टत्व " हेतु अनेकांतिक हेत्वाभास ही कहना चाहिये । केवल व्यभिचार टोप करके ही इस हेतकी निंदा करना थोडा नहीं है । इस सन्निवेशविशिष्टत्व हेतुका कथन कर देनेसे वैशेषिकों के कार्यत्व हेतु, अर्थक्रियाकारित्व हेतु, स्थित्वाप्रवृत्ति हेतु, अचेतनत्व हेतु, विनाशित्व हेतु, आदिका भी वर्णन कर दिया समझ लेना चाहिये । अर्थात्-कार्यत्वादि हेतु भी ईश्वरको जगत्का कर्त्तापन साधनमें ईश्वर देह करके व्यभिचार दोषवान् है । इनमें भी उक्त रीत्या निर्बल अंसिद्ध दोषको नहीं उठाकर पुष्ट व्यभिचार दोषको रखियेगा।