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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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___ तिस कारण हमने वहीं नौवीं वार्तिकमें यह बहुत अच्छा कह दिया था कि देहसहित ईश्वरको मानने वाले पौराणिकवादियोंके यहां " सन्निवेशविशिष्टत्वात् ” यह हेतु ईश्वरके शरीरकरके ही व्यभिचार दोषवाला है । यहांतक आचार्योने सन्निवेशविशेषत्व हेतुके ऊपर नौंवीं वार्तिक पूर्वार्ध करके उठाये गये व्यभिचारदोषकी पुष्टिको परिसमाप्त कर दिया है, यही इति शद्बका भाव है।
बुद्धिमद्धेतुकं यादृग्दृष्टं हर्म्यगृहादिषु । संनिवेशविशिष्टत्वं तादृग्जगति नेक्ष्यते ॥ ३३ ॥ इति हेतोरसिद्धत्वं कैश्चिदुक्तं न युज्यते । तथा सर्वेष्टहेतूनामसिद्धत्वप्रसंगतः ॥ ३४ ॥
श्री विद्यानंद आचार्य कहते हैं कि किन्हीं किन्हीं विद्वानोंने वैशेषिकोंके सन्निवेशविशिष्टत्व हेतुको यों असिद्ध हेत्वाभास कहा है कि जिस प्रकारका हवेली, गृह, झोंपडे, आदिमें बुद्धिमान् हेतुओंसे जन्य हो रहे सन्ते सन्निवेशविशिष्टपना देखा जाता है, वैसा रचनाविशेष तो जगत् स्वरूप पक्षमें नहीं देखा जाला है । इस कारण पक्षमें हेतुके नहीं ठहरनेसे हेतुका असिद्ध हेत्वाभास दोष हुआ । अर्थात्-प्रमेयकमलमार्तडमें भी यों लिखा है कि " अस्तु वाऽविचारितरमणीयं बुद्धिमत्कारणत्व व्याप्त कार्यत्वं तथाप्यत्र यादृग्भूतं बुद्धिमत्कारणत्वेऽभिनवकूपप्रासादादौ व्याप्त कार्यत्वं प्रमाणतः प्रसिद्धं यदक्रियादर्शिनोपि जीर्णकूपप्रासादादौ लौकिकेतरयोः कृतबुद्धिजनकं तादृग्भूतस्य क्षित्यादावसिद्धेरसिद्धो हेतुः सिद्धौ वा जीर्णकूपप्रासादादाविवाऽक्रियादर्शिनोऽपि कृतबुद्धिप्रसंग: ” इत्यादि पंक्ति करके पक्ष और दृष्टान्तमें थोडासा अन्तर दिखलाकर असिद्ध हेत्वाभास उठाया गया है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह असिद्ध हेत्वाभासका कथन युक्त नहीं है। क्योंकि यों तो तिस प्रकार इष्ट हो रहे सम्पूर्ण हेतुओंके असिद्धपनका प्रसंग हो जायगा, जैसा धुआं महानसमें समान आकृतिवाला देखा जा चुका है, वैसा पर्वतमें नहीं दीख रहा है । " शद्बोऽनित्यः कृतकत्वात् घटवत् " यहां जैसा कुलाल, दंड, मृत्तिका आदि कारणोंसे बनाया गयापन घटमें दृष्टिगोचर हो रहा है, वैसा कृतकपना शद्बमें नहीं प्रतीत होता है । शद्बके उपादान कारणका ही प्रत्यक्ष नहीं है । बात यह है कि थोडे थोडे अन्तरसे हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास नहीं हो जाता है । तुच्छतापूर्ण दोषोंसे किसीका तिरस्कार हमें नहीं करना है ।
कृतधीजनकं तद्धि नाक्रियादर्शिनो यथा । क्वचिचथा न धूमादिरग्न्यादिज्ञानकारणं ॥ ३५॥ वन्ह्यादिबुद्धिकारित्वं स्वयंसिद्धस्य सिद्धता। धूमादेः साधनस्यैतत्सिद्धौ वन्द्यादिधीरिति ॥ ३६॥ , .
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