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तत्त्वायचिन्तामणिः
हमारे निर्देहत्व हेतुके पेटमें ही पुरुषविशेषपना घुसा है। जैसे कि अज्ञानी कह देनेसे पर्युदासवृत्ति करके जीव उसके पेटमें घुसा हुआ है । अज्ञानी कोई डेल नहीं होता है। देहसे जो निष्क्रांत होरहा है वह विशेषपुरुष महेश्वर निर्देह है " निरादयः कान्ताद्यर्थे पंचम्याः " इससे वहां तत्पुरुष समास होजाता है । उस निर्देह पुरुषके भावको निर्देहपुरुषत्व कहते हैं । " भावे त्वतलौ" भावमें त्व प्रत्यय कर दिया गया है । तिस कारण " पुरुषत्वे सति निर्देहत्वात् " पुरुष होते हुये निर्देहपना इतना हेतु बना है । इस पुरुषत्व करके विशिष्ट होरहे निर्देहत्व हेतुका प्रयोग कर देनेसे सर्व कार्योंकी उत्पत्तिमें निमित्त माने जारहे किन्तु शरीररहित जड काल, आकाश, आदि करके हेतुका व्यभिचार दोष नहीं आता है । जिससे कि हम जैनोंका यह अशरीर ईश्वरमें जगत्के निमित्तपनके अभावको साधनेवाला अनुमान अप्रतिहत ( अकाट्य ) नहीं होजाय । अर्थात्-हमारा अनुमान निर्दोष है । दूसरी बात एक यह भी है, उसको अगली वार्तिकसे सुनो। ... जगतां नेश्वरो हेतुरज्ञत्वादन्यजंतुवत् । - न ज्ञोसावशरीरत्वान्मुक्तवत्सोन्यथा सवित् ॥ १५ ॥
ईश्वर (पक्ष ) तीनों जगत्का निर्माणकर्ता हेतु नहीं है ( साध्य ) अज्ञ होनेसे (हेतु) अन्य जंतुओंके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) इस अनुमानका हेतु पक्षमें ठहर जाता है। अतः असिद्ध हेत्वाभास नहीं है । देखिये, वह ईश्वर ( पक्ष ) ज्ञाता नहीं है ( साध्य ) शरीररहित होनेसे ( हेतु ) मुक्त आत्माके समान, अन्यथा यानी शरीररहित भी ईश्वरको यदि ज्ञायक मान लिया जायगा तो वह मुक्त आत्मा भी ज्ञानी बन बैठेगा । अर्थात्-वैशेषिकोंने मोक्ष अवस्थामें आत्माके बुद्धि आदि नौ विशेष गुणोंका अत्यन्त उच्छेद इष्ट कर लिया है । " नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदो मुक्तिः "। कोई विद्वान् यों भी वखानते हैं " एकविंशतिदुःखध्वंसो मोक्षः "। छह इन्द्रियां, ६ छह इन्द्रियोंके विषय १२ और ६ इन्द्रियोंके ज्ञान १८ सुख १९ दुःख २० और शरीर २१ यों इक्कीस दुःखोंका मुक्ति अवस्थामें विनाश होजाता है। यद्यपि घट, डेल आदि पदार्थोंमें आत्मसंबंधी नौ विशेष गुण या इक्कीस दुःख नहीं हैं। अतः घट आदिको भी मुक्तपनेका अतिप्रसंग यों नहीं होसकता है कि मोक्ष अवस्थामें गुणोंका या दुःखों का ध्वंस उपजना चाहिये । प्रति योगियोंका प्रथम सद्भाव होने पर तो पुनः उनका ध्वंस हो सकता है। किन्तु घट आदिमें ज्ञान आदि गुणों या दुःखोंका प्रथमसे ही अत्यन्ताभाव है । अतः अतिव्यापि दोष नहीं आता है। जैनोंके यहां भी इस अतिप्रसंगके निवारणार्थ कर्मोके ध्वंसको मोक्ष मानते हुये इसी उपायका अवलम्बन लिया जा रहा है । तभी डेल, घडा, आदिमें मुक्तपनका अतिप्रसंग टल सका है । आचार्य कहते हैं कि वैशेषिकोंके यहां मुक्ति अवस्थामें आत्मा शरीररहित होता संता ज्ञानरहित भी हो जाता है । इसी मुक्तदृष्टान्तके अनुसार शरीररहित होनेसे अब बन गये ईश्वरकरके जगत्का निर्माण