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तपाय मोकवार्तिक
रहा नित्यज्ञान ही उस ईश्वरका प्रमाण है। ईश्वरज्ञानको अनित्य माननेपर अनेक अगडे उठ बैठेंगे । श्री विद्यानन्द स्वामी समझाते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि तुम्हारे यहां आत्मा और अर्थके सन्निकर्षको प्रमाणपना स्वीकार किया गया है । कही सुवर्ण आदिमें आत्मा, मन, इन्द्रिय, अर्थ, चारोंका सन्निकर्ष होकर ज्ञान उपजता माना है । किसी सुख आदिका मन अर्थ और आत्माके त्रय मन्निकषेसे ही ज्ञान उपज जाता है । कचित् अर्थ और आत्माके हुये सन्निकर्षसे ही ज्ञानोत्पत्ति मानी गयी है । तुम्हारे यहां प्रमितिके करण स्वीकार किये गये सन्निकर्षको प्रमाण इष्ट कर लिया है । व्यापक और नित्य हो रहे महेश्वरका एक बार ही सम्पूर्ण अर्थोके साथ सन्निकर्ष हो जामेसे सम्पूर्ण अर्थोके ज्ञानकी उत्पत्ति हो जाना किन्हीं नैयायिक विद्वानोंने अभीष्ट कर ली है । तिस कारण ईश्वर का ज्ञान नित्य नहीं सिद्ध हो सका, जिससे कि ईश्वर ( पक्ष ) जगत्का निमित्त कारण नहीं है ( साध्य ) शरीररहित होनेस ( हेतु ) मुक्त आत्माके समान ( अन्वयदृष्टान्त ), यह हमारा अनुमान प्रतिघातको प्राप्त हो जाता । भावार्थ-नैयायिकोंने देहरहित भी ईश्वरको नित्यज्ञानकी सामर्थ्यद्वारा जगनिर्माता माना था। किन्तु ईश्वरका ज्ञान उनके बूते नित्य नहीं सिद्ध हो सका । अतः निर्देहत्व हेतुसे ईश्वरमें जगत् निमित्तपनके अभावको साधनेवाला हमारा अनुमान अप्रतिहत है । नित्यज्ञानसे रहित कोई भी जीव देहरहित होता हुआ मुक्तआत्माके समान जगत्का निर्माता नहीं है ।
कालादेरशरीरस्य कार्योत्पत्तिनिमित्ता। सिद्धेति व्यभिचारित्वं निर्देहत्वस्य चेन्मतं ॥ १३ ॥ न तस्य पुरुषत्वेन विशिष्टस्य प्रयोगतः। कालादेरशरीरत्वेश्वरत्वाव्यभिचारतः ॥ १४ ॥
नैयायिक कहते हैं कि शरीररहित भी आकाश, काल अदृष्ट आदिको यावत् कार्योकी उत्पत्ति में निमित्तकारणपना सिद्ध है । इस कारण तुम जैनोंका निर्देहत्व हेतु व्यभिचारहेत्वाभास दोषसे सहित है, ऐसा मन्तव्य होनेपर तो आचार्य कहते हैं कि यों नहीं कहना। क्योंकि वह केवल "निर्देहत्व' इतना ही हेतुका शरीर नहीं है । किन्तु पुरुषपने करके विशिष्ट हो रहे उस निर्देहत्व हेतुका प्रयोग किया गया है । अतः काल आदिकसे व्यभिचार दोष नहीं है । क्योंकि कालादिकमे अशरीरत्व है। किन्तु विशिष्टपुरुष ( ईश्वर ) पना नहीं है। कालादिकमें शरीररहित ईश्वरपनका व्यवहार नहीं होता है । अतः कालादिमें हेतुका पूरा शरीरघटित नहीं होनेसे व्यभिचारदोष नहीं फटक पाता है ।
देहान्निष्क्रांतो निर्देहः पुरुषविशेषो महेश्वरस्तत्त्वनिर्देहपुरुषत्वं ततः पुरुषत्वे सति निर्देहत्वादिति पुरुषत्वेन विशिष्टस्य निर्देहत्वस्य प्रयोगान कालादिना सर्वकार्योत्पत्तिनिमित्तेनाशरीरेण व्यभिचारित्वं यतोऽमतिहतमिदमनुमानं न स्यादशरोरेश्वरजगनिमित्तत्वामाक्साधनं । किं च