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तत्वार्थ लोकवार्त
विधाता माने गये ईश्वरका ज्ञान ( पक्ष ) नित्य नहीं है ( साध्य ) ज्ञान होनेसे ( हेतु ) अन्य जीवोंके ज्ञान समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार पक्षमें नहीं वर्त रहे नित्यज्ञानत्व हेतुका असिद्धहेत्वाभासपना हो जानेसे पृथ्वी, पर्वत, द्वीप, आदिका निमित्तकारण ईश्वर नहीं संघ पाता है I
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बोधत्वं च स्यादीश्वरबोधस्य नित्यत्वं च स्याद्विरोधाभावादस्मादृश विशेषत्वादीश्वरस्य विशिष्टबोधोपपत्तेः अन्यथा सर्वज्ञत्वसिद्धिविरोधात् इति कश्चित् । सेोप्ययुक्तवादी, तद्बोधस्य प्रमाणत्वे ततोऽपरस्य फलज्ञानस्यानित्यस्य तत्र प्रसिद्धेरफलस्य प्रमाणस्यासम्भवात् । तस्य फळत्वे नित्यत्वविरोधात् । फलं हि प्रमाणकार्य तत्कथं नित्यं युक्तं ? प्रमाणफलात्मकमीश्वरज्ञानमेकमित्यपि व्याहतं, स्वात्मनि क्रियाविरोधात् तस्य स्वजननासंभवात् ।
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यहां कोई नैयायिक यों प्रतिकूल तर्क उठता है कि ईश्वरके ज्ञानमें ज्ञानपना रहे और नित्यस्वाभाव साध्य नहीं रहे । अर्थात् – नित्यपना भी बना रहे, कोई विरोध नहीं पडता है । कारण कि अस्मद् आदि अल्पज्ञ जीवोंसे विलक्षण ईश्वर है । हमारे अनित्य ज्ञानसे उस ईश्वरका ज्ञान नित्य होता 1 हुआ विशिष्ट सिद्ध हो रहा है। अन्यथा यानी हम लोगों की अपेक्षा ईश्वर में यदि विशेष अतिशय नहीं माने जाकर दूसरे सामान्य ढंगों को अपनाया जायगा । तब तो सर्वज्ञपनकी सिद्धि का विरोध होजायगा कारण कि हम लोग सर्वज्ञ नहीं हैं । वैसा ही अल्पज्ञ ईश्वर होना चाहिये । किन्तु जैनजन परमात्माका सर्वज्ञपना इष्ट करते हैं । उसीके समान ईश्वर के ज्ञानको नित्य भी अभीष्ट कर लिया जाय । अतः बोधत्व हेतु ईश्वरका ज्ञान अनित्य नहीं सत्रा, तत्र तो हमारे नित्यज्ञानत्व हेतुसे वह जगत्का हेतु स गया, इस प्रकार कोई ईश्वरवादी कह रहा है । ग्रंथकार कहते हैं कि वह भी युक्तिशून्य बोलने की ठेव को रखनेवाला है, क्योंकि प्रमाके करण होरहे प्रमाणों का फल अवश्य होना चाहिये । अब बताओ, वह ईश्वरका ज्ञान विचारा प्रमाणस्वरूप है ? या फलआत्मक है? उस ईश्वर के नित्यज्ञानको यदि प्रमाण माना जायगा तो उससे न्यारे दूसरे अनित्य होरहे फलज्ञानकी उस ईश्वर में प्रसिद्धि होजायगी । फलते रहित होरहे प्रमाणज्ञानका असंभव है । द्वितीय पक्ष अनुसार यदि उसी एक ज्ञानको फल मान लोगे तो उस ज्ञानके नित्यपनका विरोध होगा । फल तो कारकों का कार्य होरहा अनित्य हुआ करत है । भला प्रमाण के कार्य होरहे उस फलको नित्य कहना किस प्रकार युक्त होसकता है ? तुम ही विचार करो। तुम्हारा यह कहना भी व्याघात दोषयुक्त है कि ईश्वरका एक ही ज्ञान प्रमाण आत्मक है और फलस्वरूप भी है । स्याद्वादियों के यहां एक धर्मी में प्रमाणत्व, प्रमेयत्व, प्रमातृत्व, प्रमाफलत्व आदि कतिपय धर्म अक्षुण्ण ठहर जाते हैं । किंतु तुम एकान्तवादियों के यहां करणत्व और फलत्वका विरोध है । तुम्हारे यहां ईश्वरज्ञानमें प्रमाणता माननेपर फलव नष्ट हो जाता है । और फलपना माननेपर करणपना नष्ट
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जाता है । " नैकं स्वस्मात्प्रजायते " अपनी आत्मा में अपनी उत्पत्तिरूप क्रियाका विरोध है । हां, ज्ञप्तिकियाका विरोध नहीं है । अतः उस प्रमाणआत्मक ईश्वरज्ञान से स्त्रका उपजनारूप - फलक