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तत्वार्थचिन्तामणिः
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सिद्ध हो जावेगा, इसके लिये यों अनुमान बनाया जा सकता है । मदीयोऽश्यको लाक्षिकः विलक्षणगतिमत्वात् , खंजत्वाद् वा । विलक्षण लंगडी, लूली, गति, अनुसार चलनेवाला होनेसे मेरा लंगडा टटू बहुमूल्य है।
ननु नित्यज्ञानत्वादित्येतस्य हेतोरन्वयासत्त्वेपि न व्यतिरेकासत्त्वं जगदकारणस्यास्मदादेर्नित्यज्ञानत्वाभावादिति न मंतव्यं, ज्ञानसंतानापेक्षयास्मदादेरपि नित्यज्ञानत्वात् । न हि मानसामान्यरहितोस्मदादिः संभवति, विरोधात् । यदि पुनर्ज्ञानविशेषापेक्षया नित्यज्ञानत्वं हेतुस्तदा न सिद्ध इत्याह
नैयायिक अपने मतका अवधारण करते हुये कहते हैं कि यद्यपि हमारे " नित्यज्ञानत्वात् । इस हेतुके किसी दृष्टान्तमें अन्वयका सद्भाव नहीं है । क्योंकि ईश्वरके अतिरिक्त किसी भी व्यक्तिमें नित्य ज्ञानसे सहितपना नहीं पाया जाता है । तथापि हमारे हेतुके व्यतिरेकका असद्भाव नहीं कहा जा सकता है । " प्राणादिमत्व आदि " अनेक केवलव्यतिरेकी हेतुओंमें अन्वय नहीं होनेपर भी व्यतिरेक बडी प्रसनतासे सुखपूर्वक मिल जाता है । देखिये, जगत्का निर्माण करनेमें कारण नहीं बन रहे हम आदि अनेक संसारीजीवोंके नित्यज्ञानवानपनेका अभाव है । इस ढंगसे साध्यके नहीं होनेपर हेतुके नहीं ठहरनेसे अस्मदादिक ही व्यतिरेकदृष्टान्त ठहर जाते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाहिये । क्योंकि हम आदिक अनेक जीवोंके भी ज्ञानसंतान अपेक्षा करके नित्यज्ञान सहितपना विद्यमान है । हम आदिक जीव सोते, जागते, बैठते, उठते, मरते, जन्मते, कदाचित् भी सामान्यज्ञानसे रहित नहीं सम्भवते हैं । आत्माका ज्ञान रहितपने के साथ विरोध है । विग्रहगति, मत्त, मूछित, गर्भ, अण्डज, या मरणदशामें भी आत्माके ज्ञान पाया जाता है । अन्यथा लक्षणके नष्ट हो जानेसे लक्ष्य आत्मा जड बन बैठेगा । बहुत कहनेसे क्या फल है । आत्मा नष्ट ही हो जावेगा । शीतकाल या हिम आदिका सन्निधान होनेपर अग्निमें स्वल्प उष्णता भले ही रह जाय, किन्तु उष्णताका सर्वथा अभाव हो जानेपर वह अग्निपर्याय ही नहीं स्थिर रह सकती है । अतः अनादिकालसे अनन्तकालतक धाराप्रवाह चले आ रहे नित्य ज्ञानसे सहित अस्मदादिक संसारी जीव तुम्हारे यहा सृष्टिकर्ता नहीं माने गये हैं। अतः जो जगनिर्माता नहीं वह नित्यज्ञानवान् नहीं, इस व्यति. रेकमें व्यभिचार आ जानेसे तुम नैयायिकोंका नित्यज्ञानत्व हेतु केवलव्यतिरेकी नहीं सिद्ध हो सका है। यदि फिर आप धाराप्रवाहरूप नित्यताको नहीं पकडकर ईश्वरमें विशेष व्यक्तिरूप. ज्ञानकी अपेक्षासे नित्यज्ञानसहितपना हेतु करोगे तब व्यतिरेकदृष्टान्त तो बन गया । किन्तु ईश्वरके ज्ञानका नित्यपना सिद्ध नहीं हो पाता है । इसी बातको ग्रन्थकार वार्तिक द्वारा कहते हैं। .
बोधो न वेधसो नित्यो बोधत्वादन्यबोधवत् । इति हेतोरसिद्धत्वान वेधाः कारणं भुवः ॥ १२ ॥