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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः ( पक्ष ) किसी बुद्धिमान् कर्तास्वरूप हेतु करके बनाये गये समझे जाओ ( साध्य ) विशेष प्रकारकी रचना बन रही होनेसे ( हेतु ) घटके समान ( अन्वयदृष्टान्त )। आचार्य कहते हैं कि यों वैशेषिकका मन्तव्य प्रशस्त नहीं है । क्योंकि उक्त अनुमानके हेतुका ईश्वरके शरीरकरके व्यभिचार हो जाता है । पौराणिक विद्वानोंने ईश्वरका शरीर स्वीकार किया है। किन्तु उस शरीरका निमित्त कारण ईश्वर नहीं पडता है । अतः हेतुके ठहर जानेसे ईश्वरदेहमें साध्यका अभाव हो जानेपर सन्निवेशविशेषत्व हेतु व्यभिचारी हो जाता है । यदि ईश्वरकरके अपने शरीरका निर्माण भी अन्य अन्य शरीरोंद्वारा स्वीकार किया जायगा तो अनवस्था दोष आ जावेगा । ईश्वर अपने शरीरोंको बनाते बनाते उपक्षीणशक्तिक हो जायगा । यों ईश्वरशरीर करके व्यभिचार दे चुकनेपर उस प्रकरणमें ईश्वरके देहको नहीं कहनेवाले कोई दूसरे वादी तो यों मान बैठे हैं कि ईश्वरके देह ही नहीं है, शरीररहित ही ईश्वर सम्पूर्णकार्योका निमित्तकारण हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि उन वादियों के यहां उन तनु तरु आदि कार्यों में ईश्वर निमित्तकारण सिद्ध नहीं हो पाता है (प्रतिज्ञा ), देहरहित होनेसे ( हेतु ) जैसे कि स्वयं आपका भले प्रकार माना जा चुका मुक्त आत्मा सृष्टिका निमित्तकारण नहीं है ( अन्वयदृष्टान्त ) । अतः द्वीप, समुद्र, आदि सब अकृत्रिम है । अनादि अनिधन हैं। विवादाध्यासिता द्वीपादयो बुद्धिमत्कारणकाः सनिवेशविशेषत्वात् घटवदिति कश्चित् । तदसत् । हेतोरीश्वरशरीरेण विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात् । संबाहुभ्यां धमति संपतत्रैवाभूमी जनयन् देव एकं इत्यागमप्रसिद्धनानेकांतादिति । अपरे नेश्वरस्य शरीरमस्ति यतो हेतोर्व्यभिचारश्वोद्यत इति मन्यते तेषां “ अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः, स वेत्ति विश्वं न हि तस्य वेत्ता तमाहुरयं पुरुषं महांतं " इत्यागमं प्रमाणयतां नेश्वरस्तत्र निमित्तकारणं सिध्यति निर्देहत्वात् स्वयं संमतमुक्तात्मवत् । ___ किसी पौराणिक विद्वान्का अनुमान है कि द्वीप, समुद्र, आदि ये कृत्रिम हैं या अकृत्रिम हैं ! यों विवादमें निर्णयार्थ प्राप्त हो रहे द्वीप, पर्वत, आदिक ( पक्ष ) किसी बुद्धिमान् कारण करके बनाये गये कार्य हैं ( साध्य )। सन्निवेश यानी रचनाविशेष होनेसे ( हेतु ) घटके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) यहांतक कोई कह रहा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि उसका कहना. असत्यार्थ है। क्योंकि ईश्वरके तुम्हारे इस आगम द्वारा प्रसिद्ध हो रहे शरीरकरके सन्निवेशविशेषत्व हेतुका व्यभिचार हो जाता है । तुम्हारा माना हुआ वह आगम इस प्रकार है । शुक्ल यजुर्वेद संहिता १८ वां अध्याय उन्नीसवां मंत्र है कि ईश्वरके सब ओरसे चक्षुयें हैं, सम्पूर्ण ओर उसका मुख विद्यमान है, सब ओरसे उसकी बाहुयें हैं, वितर्कणा पूर्वक कहा जाता है कि अखिल ओरसे उसके पांव हैं। जिस प्राणी के जे जे चक्षुः, मुख आदि हैं वे सब उस उस उपाधिवाले परमेश्वरके ही हैं | यों सर्वत्र चक्षु आदि घटित होजाते हैं। पुण्य, पापोंके, अनुसार परमाणुओं करके वह एक ही देव 61
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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