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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ३९९ हैं। "आऊणि भवविवाई खत्तविवाई य आणुपुब्बीओ। अठत्तरि अवसेसा विविवाई मुणेयव्वा"। ये तीन जातिकी प्रकृतियां मनुष्यों के या अन्यजीवोंके तिस प्रकार वहां उपजनेमें प्रेरक निमित्त कारण होजाती हैं, उसीके समान अनेकक्षेत्रोंमें विपाक होनेकी टेवको धारनेवाले चौथी जातिके चार आनुपूर्व्य क्षेत्रविपाकी कर्म भी उन उन स्थलों पर उन जीवोंके जन्म लेकर उत्पत्ति होनेमें प्रेरक हेतु हो जाते हैं । अर्थात्-जिन जीवोंके जिस जातिके कर्मका सद्भाव पाया जावेगा, तदनुसार उन उन द्वीप या समुद्रोंमें जीवका जन्म हो जायेगा । इस कारण उन जीवोंके संपूर्ण आधार विशेषोंका निरूपण करना आवश्यक ही पड गया है। तदप्ररूपणे जीवतत्त्वं न स्यात् प्ररूपितं । विशेषेणेति तज्ज्ञानश्रद्धाने न प्रसिध्द्यतः ॥ ६ ॥ तनिबंधनमक्षुण्णं चारित्रं च तथा क नु । मुक्तिमार्गोपदेशो नो शेषतत्त्वविशेषवाक् ॥ ७ ॥ ____ यदि उन क्षेत्रोंका निरूपण नहीं किया जायगा तो विशेषरूपकरके श्री उमास्वामी महाराज द्वारा जीवतत्त्वका निरूपण करना नहीं समझा जायगा। ऐसी दशामें उस जीवतत्त्वका ज्ञान करना और जीवतत्त्वका श्रद्धान करना ये दो रत्न कभी भी प्रसिद्ध नहीं होसकते हैं। और तिस प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्रसिद्धि नहीं होनेपर उन दो को कारण मान कर होने वाला तीसरा रत्न निर्दोष या पूर्णचारित्र तो भला कहां प्रसिद्ध हो सकता है ? और यों तीनों रत्नोंके नहीं प्रसिद्ध होने पर विचारा आद्यसूत्र द्वारा मोक्षमार्गका उपदेश देना भी कहां बना ? जीवको मूलभित्ति मानकर शेष छह तत्त्वोंका निरूपण किया जाता है । जीवतत्त्वकी प्ररूपणा हुये विना शेष अजीव आदि तत्त्वोंका विशेषरूपसे कथन करना नहीं बन पावेगा । अतः मोक्षमार्ग माने गये रत्नत्रयके विषय हो रहे जीवादि तत्त्वोंकी समीचीनप्रतिपत्ति करानेके लिये उन जीवोंके आधारस्थानोंका निरूपण करना सूत्रकारका उचित कर्तव्य है। तेषां हि द्वीपसमुद्रविशेषाणामप्ररूपणे मनुष्याधाराणां नारकविय॑म्देवाधाराणामप्यप्ररूपणप्रसंगान विशेषेण ज़ीक्तत्वं निरुपितं स्यात्, निरूपणाभावे च न तद्विज्ञानं श्रद्धानं च सिध्द्येत्, तदसिद्धौ श्रद्धानज्ञाननिबंधनमक्षुण्णं चारित्रं च क नु-संभाव्यते ? मुक्तिमार्गश्च कैवं ? शेषाजीवादितत्त्ववचनं च नैवं स्यात् । ततो मुक्तिमार्गोपदेशमिच्छता सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्यभ्युपगंतव्यानि । तदनमम्मापाये युक्किमार्मानुपपत्तेः, तानि. चाभ्युपगच्छता तद्विषयभावमनुभवत् जीवतत्त्वमजीवादितत्त्ववत् प्रतिपत्तव्यं । तत्प्रतिपद्यमाने च तद्विशेषा आधारादयः प्रतिपत्तव्याः। इति युक्तं द्वीपसमुद्रादिसनिवेशादिविशेषमरूपणमध्यायेऽस्मिन् । अत्रापरःपाह
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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