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________________ ३८८ तत्वार्य लोकवार्तिक वैशेषिकोंने ब्राह्मणत्व, शूद्रत्व आदि जातियोंको सर्वथा नित्य मान लिया है। किन्तु वे ब्राह्मणत्व आदि जातियोंको फिर एकान्तरूपसे नित्यपनकी व्यवस्थाको कराने के लिये समर्थ नहीं हो सकते हैं। अनिस्य व्यक्तियों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध बन रहा होनेते, वे जातियां सर्वथा नित्य नहीं कहीं जा सकती हैं। यदि शोषिक उन ब्राह्मणव आदि जातियों का उन ब्राह्मण आदि व्यक्तियोंके साथ सभी प्रकारों से किसी भी प्रकारसे तादात्म्य सम्बन्ध अभीष्ट नहीं करेंगे तब तो वृत्ति, विकल्प, अनवस्था आदि दोषोंकी प्राप्तिका प्रसंग होगा । भावार्थ-एक जातिकी अनेक देशस्थ व्यक्तियोंमें यदि पूर्ण रूपसे पत्ति मानी जायगी तब तो प्रत्येक व्यक्तियोंमें ठहरनेवाली जातियां वैशेषिकों को अनेक माननी पडेंगी। यदि एक जातिका अनेक व्यक्तियोंमें एक एक देशसे वर्तना माना जायगा, जैसे कि आकाश वर्तरहा है, तब तो जातिको अवयवसहितपना प्राप्त होगा। उन अवयवोंमें भी जातीकी एकदेश या सर्व देशसे वृत्ति मानते मानते वही पर्यनुयोग चलेगा । यों अनवस्था दोष खडा हो जाता है । तथा घटकी उत्पत्ति होनेवाले देशमें प्रथमसे सामान्य था तो वहां घटके बिना वह घटत्वसामान्य भला किस आधारपर बैठा हुआ था ? आश्रयो पिना सामान्य ठहर नहीं सकता है । " अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य आश्रितत्वमिहोच्यते " नित्य द्रव्यों के अतिरिक्त सभी पदार्थ आश्रित माने गये हैं। घटकी उत्पत्ति हो रहे स्थलमें सामान्य अन्य स्थानसे आ नहीं सकता है। क्योंकि वैशेषिकोंने सामान्यको क्रियारहित स्वीकार किया है। पूर्व आधारको यह छोड भी क्यों देगा ! इसी प्रकार घटके झट जानेपर घटत्व सामान्य कहां चला जाता है ! बताओ । भला सर्वथा एक सामान्य प्रत्येक व्यक्तियोंमें परिसमाप्त कैसे होगा ! तुम ही विचारो । भिन्न पडे हुये सावाय द्वारा भिन्न पड़ी हुई जाति भिन्न भिन्न व्यक्तियोंमें नहीं चुपक सकती है । यो वैशेषिकों के ऊपर कतिपर दोष आते हैं। अतः जातिको. सर्वथा नित्य 'नहीं मान बैठना चाहिये । तथा जाति एकान्त रूपसे अमूर्त माननेपर घट, पट, आदि मूर्त द्रव्यों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध होनेका विरोध हो जायगा । मूर्ती साथ तादात्म्य रख रहा पदार्थ मूर्त समझा जाता है । तिस कारणले स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार यो निर्णय कर लो कि जाति कथंचिद् नित्य है। (प्रतिज्ञा ) क्योंकि कथंचिद् नित्य माने जा रहे पदार्थीका तदात्मक सादृश्य रूप वह है । नित्य माने जा रहे सम्पूर्ण द्रव्य या कथंचिद् नित्य मानी जा रही सूर्यविमान, कुलाचल, अकृत्रिम प्रतिमायें आदिक नित्य पर्यायोंमें वर्त रहा सादृश्यरूप सामान्य कथंचित् नित्य ही है। साथमें वह जाति ( पक्ष ) कथंचित् अनित्य भी है ( साध्य ), नाश होनेवाले सादृश्यरूप स्वभाव होनेसे ( हेतु ) अर्थात्-घट, पट, आदि नाशशील पदार्थों का सादृश्य कथंचित् अनित्य है । इसी प्रकार वह जाति कथंचित् सर्वव्यापक भी है । क्योंकि सत्ता, वस्तुत्व आदि जातियों के समान वह जाति सम्पूर्ण पदाथोमें अन्वित हो रही है । और वह जाति कथंचित् असर्वगत है । क्योंकि .न्यारे न्यारे देशोंमें वर्त रहे प्रति नियत पदार्थों के आश्रित हो रही है । तर घा, पर, संसारी जीव, आदि मूर्त द्रव्योंका परिणाम होनेसे वह जाति कथंचित् मूर्तिवाली है । आकाश, शुद्ध आमा, कालद्रव्य,
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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