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________________ · तत्वाचिन्तामणिः कि धोबीकी गधैयापर कपडोंकी लादी लदी रहती है। वास्तविक रूपसे परपदार्थ कालत्रयमें अपना नही होसकता है, इति निर्णेष्यते स्वयं ग्रंथकारः ।। स एव मनुष्य इति प्रत्ययान समाना इति तद्ग्रहोस्ति यतः सादृश्यसामान्य सिध्येदिति चेत् न, ससे मनुष्यादौ स एवायमिति प्रत्ययस्योपचरितैकत्वविषयत्वात् । द्विविधं हि एकत्वं मुख्यमुपचरितं च, मुख्यमूर्ध्वतासामान्यमुपचरितं तिर्यक् सामान्य सादृश्यमिति सुनिश्चितमन्यत्र । कोई नैयायिक कटाक्ष करता है कि अनेक मनुष्योंको देखनेपर यह वही मनुष्य है यह दूसरा भी मनुष्य ही है, यह तीसरा भी वही मनुष्य है, इस प्रकार एकल्वका परिचायक परिज्ञान हो रहा है। अतः " यह मनुष्य उसके समान है, अमुक मनुष्य तिस मनुष्यके समान था " इस प्रकार सादृश्यको जाननेवाला ग्रहण नहीं हो रहा है, जिससे कि जैनोंका अभीष्ट सादृश्य परिणामरूप सामान्य सिद्ध हो जाता । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि यह तो मन्दबुद्धि भी समझ सकता है कि सदृश हो रहे दूसरे, तीसरे, चौथे, मनुष्य आदिमें यह वही मनुष्य है, यह दूसरा भी वही मनुष्य है, इस प्रकार हो रहे ज्ञान तो उपचरित एकत्वको विषय करते हैं । एक ही व्यक्तिमें यह वही है, यह प्रत्यभिज्ञान मुख्य एकत्वको विषय करता है । अनेक व्यक्तियोंमें हुआ एकत्व प्रत्यभिज्ञान प्रमाणाभास होगा अथवा उपचरित एकत्वको विषय करनेवाला होगा। तीसरा कोई उपाय नहीं । देखो, एकत्व दो प्रकारका माना गया है । पहिला मुख्य एकत्व है, दूसरा उपचरित एकत्व है।" परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्खतासामान्यं " एक द्रव्यकी अनेक कालोंमें होनेवाली नाना अवस्थाओंमें व्यापनेवाला परिणाम ऊर्चतासामान्य है । जैसे कि देवदत्तकी बाल, युवा वृद्ध अवस्थाओं या जन्मान्तरोंकी पूर्वोत्तरपर्यायोंमें जो समान परिणाम है, वह ऊर्ध्वतासामान्य है । इस ऊर्चतासामान्यको विषय करनेवाले ज्ञानका गोचर मुख्य एकत्व है और अनेक व्यक्तियोंमें एक काल पाये जानेवाले तिर्यक् सामान्यको जाननेवाले ज्ञानका विषय हो रहा सादृश्य तो उपचरित एकत्व है, इस सिद्धान्तका हम अन्य अष्टसहस्री आदि ग्रन्थोंमें बहुत अच्छा निर्णय कर चुके हैं। - सा पुनर्ब्राह्मणत्वादिजाति कांततो नित्या शक्या व्यवस्थापयितुमनित्यव्यक्तितादात्म्यान, सर्वथा तस्यास्तदतादात्म्ये वृत्तिविकल्पानवस्थादिदोषानुषंगात् । नाप्येकांतेनामूर्ता मूर्ततादात्म्यविरोधात् । ततः स्यानित्या जातिर्नित्यसादृश्यरूपत्वात्, स्यादनित्या नश्वरसादृश्यस्वभावत्वात् , स्यात्सर्वगता सर्वपदार्थान्वयित्वात् , स्यादसर्वगता प्रतिनियतपदार्थाश्रयत्वात्, स्यान्मूर्तिमती मूर्तिमद्व्यपरिणामत्वात्, स्यादमूर्ता गगनायमूर्तद्रव्यपरिणामात्मिकेति नित्यसर्वगतामूर्तस्वभावा सर्वथा ब्राह्मगत्वादिजातिरयुक्ता प्रमाणेन बाध्यमानत्वात् इति सूक्तं । तदेवं
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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