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तत्वार्थचिन्तामणिः
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भरतस्य विष्कंभो जम्बू द्वीपस्य नवतिशतभागः ॥ ३३ ॥
भरत क्षेत्रकी दक्षिण, उत्तर, चौडाई जम्बूद्वीप के एक सौ नब्बैवें भाग परिमाण है । अर्थात्प्रथम स्थानको एक नग ( अदत ) मानकर उससे परली ओरके सात स्थानोंतक दूना दूना विस्तार किया जाय । पुनः सातवें स्थानसे छह स्थानोंतक आधा आधा विस्तार किया जाय, ऐसी दशामें ये सम्पूर्ण नग ( डाग ) एक सौ नब्बे हो जाते हैं । अतः सम्पूर्ण जम्बूद्वीपमेंसे भरत क्षेत्रकी चौडाई एक सौ नब्बे भाग आ जाती है ।
नवत्याधिकं शतं नवतिशतं नवतिशतेन लब्धो भागो नवतिशतभागः । अत्र तृतीयांतपूर्वादुत्तरपदे लोपश्चेत्यनेन वृत्तिर्दध्योदनादिवत् । स पुनर्नवतिशतभागो जंबूद्वीपस्य पंचयोजन शतानि षड्विंशानि षट्चैकान्नविंशतिभागा योजनस्येत्युक्तं वेदितव्यं । पुनर्भरतविष्कंभवचनं प्रकारांतरप्रतिपत्त्यर्थमुत्तरार्थं वा । तदेवं
यह पद बना लिया
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नवतिसे अधिक शत यों मध्यम पद लोपी समास कर " नवतिशत " जाता है । एक सौ न भाजक द्वारा प्राप्त हुये भागको नवतिशतभाग कहते हैं । यहां " तृतीयांतपूर्वादुत्तरपदे लोपश्च ” इस सूत्र करके समासवृत्ति हो जाती है । जैसे कि " दघ्ना उपसिक्तमोदनं दध्योदनं " गुडेन सक्ताः धानाः गुडधानाः, घृतेन संयुक्तो घटः घृतघटः यदि स्थल पर मध्यम पदोंका लोप करते हुये सामर्थ्य प्राप्त कर तत्पुरुष समास कर दिया जाता है । उसी प्रकार " नवत्या इस तृतीयान्त पदके पूर्व वृत्ति होनेपर उत्तरवर्ती शत पदके परे रहते समास होजाता है और अधिक इस पदका लोप होजाता है । फिर वह एक लाख योजन चौडे जंबूद्वीपका एकसौ नब्बैमां भाग तो पांचसौ छब्बीस पूरे योजन और योजनके छह उन्नीसवें भाग हैं । इस बातको पूर्व सूत्र द्वारा कहा जा चुका समझ लेना चाहिये। जब किं " भरतः षड्विंशतिपंचयोजनशतविस्तारः । षट् चैकोनविंशतिभागा योजनस्य " इस सूत्र द्वारा भरतका विस्तार कहा ही जा चुका था। अब जो फिर भरतका विष्कंभ कहा है वह शिष्यबुद्धि वैशद्यार्थ अन्य प्रकार करके प्रतिपत्ति कराने के लिये है, अथवा उत्तरवर्ती, " द्विर्धातकी खण्डे, पुष्करार्धे च " सूत्रों करके जो प्रमेय कहा जायगा ! उसका अभिसंबंध करनेके लिये यह सूत्र कहा गया है । भावार्थ — जंबूद्वीपमें चौरासी शलाकायें पर्वतोंकी और एकसौ छह शलाकायें क्षेत्रोंकी यो एकसौ नब्बै भाग हैं । धातकी खण्डमें दो मेरुसम्बन्धी बारह कुलाचल और चौदह क्षेत्र हैं । सभी कुलाचल और दो इष्वाकार पर्वतों से घिरे हुये स्थानसे अवशिष्ट स्थल में चौदह क्षेत्रोपयोगी दो सौ बारहका भाग देनेसे एक भरतक्षेत्रका स्थान निकलता है । यों ही पुष्करार्धके भरतका क्षेत्र जान लेना । इसी संबंधको जतानके लिये इस सूत्रका निर्माण किया है । तिस कारण इस प्रकार होनेपर :
जारहा
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