SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थ लोक वार्तिके वेदिकायुक्त वनखण्ड आदि माने गये तो दूर दूर तक जाकर भी नहीं देखनेमें आ रहे हैं । इस प्रकार किसी एक स्थूलदृष्टिवाले शिष्य की आशंकाका निराकरण करनेके लिये श्री विद्यानन्द स्वामी प्रक्रमको बांधते हैं । ३४२ अथ गंगादयः प्रोक्ताः सरिताः क्षेत्रमध्यमाः । पूर्वापरसमुद्रांतः प्रवेशिन्यो यथागमं ॥ १ ॥ सात क्षेत्रोंके मध्य में होकर गमन करनेवाली और पूर्व समुद्र, पश्चिम समुद्रके भीतर या कोई कोई गंगा सिन्धु, रक्ता रक्तोदा, ये दक्षिण या उत्तरकी ओरके मध्यवर्ती समुद्रमें प्रवेश करनेवालीं गंगा, सिन्धु, आदिक सम्पूर्ण नदियां आगममार्गका अतिक्रमण नहीं कर सूत्रकारने बहुत अच्छे ढंगसे कह दी हैं । अर्थात् —देशान्तरित पदार्थों की ज्ञप्तिके लिये आप्तोक्त आगम, पुस्तकें, नकशा ये प्रधान साधन हैं । सभी देश देशान्तरोंका या समुद्र, पर्वतोंका, कौन चक्कर लगाता फिरता है ? सूर्य, चन्द्र, विमानोंके ऊपर क्या क्या रचना बनी हुई है ? संसारमें कहां कहां कैसे कितने स्थान हैं ? इन सम्पूर्ण रहस्योंको सर्वज्ञ सम्प्रदाय से चला आ रहा आगम ही प्रकाशित करता है। गंगा, सिन्धु आदिक चौदह नदियां और विदेह क्षेत्रकी बारह विभंगा नदियां तथा बत्तीस विदेह खण्डों की गंगा सिन्धु या रक्ता रक्तोदा द्वारा दो दो होकर हुयीं चौसठ नदियां, ये जम्बूद्वीपकी नब्बे मूल नदियां तथा सत्रह लाख बानवै हजार परिवार नदियां, इन सबका निर्णय आगम अनुसार कर लिया जाता है । जगतकी प्रक्रिया या देश, देशान्तर, समुद्र, नदी, पर्वत, खान, कूप, बावडी, समुद्रतल आदिको जानने के लिये सबको आगमकी बहुभाग शरण लेनी पडती है । " न हि सर्वः सर्ववित् ” सभी प्राणी तो विश्व के साक्षात्कर्त्ता सर्वज्ञ नहीं हैं । " परिवारनदीसंख्याविशेषसहिताः पृथक् । चतुर्दश चतुःसूत्र्या नासंभाव्याः कथंचन ॥ २ ॥ " श्री उमास्वामी महाराजने “ गंगासिन्धु रोहिद्रोहितास्या हरिद्वारिकान्ता सीतासीतोदा नारीनर का - न्ता सुवर्णरूप्यकूला रक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः, द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः, शेषास्त्वपरगाः, चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिंष्वादयो नद्यः इन चारों सूत्रों करके जो पृथक् पृथक् परिवार नदियों की संख्या विशेष सहित हो रहीं चौदह नदियों का वर्णन किया है, वह किसी भी प्रकार से असम्भव नहीं है । अर्थात् – “ सपरिविारा गंगासिन्वादयश्चतुर्दश नद्यः सन्ति ( प्रतिज्ञा ) सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्वात् ( हेतु ) सुखादिवत् ” नदियों के सद्भाव के बाधक प्रमाणोंका असम्भव हो जाने से परिवार सहित चौदह नदियोंकी सत्ता निर्णीत कर ली जाती है, जैसे कि दूसरी आत्माओं के सुख या समुद्रतल अथवा महान् पर्वतों के नीचे की मध्य भागस्थ सूल ( जड ) आदि का ज्ञान " बाधकासंभव ” से कर
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy