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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक श्री उमास्वामी महाराजने एक ही इस सूत्र करके श्री, ही, प्रभृति देवियोंका व्याख्यान किया जा चुका सूचन कर दिया है । एक मेरु सम्बन्धी छह कुलाचलोंपर वे देवियां सामानिक आदि देवोंसे सहित हो रहीं सन्ती उन कमलोंमें निवास करनेवाली छह ही हैं । इतने प्रमेयको सूत्रकारने एक ही सूत्रमें भर दिया है " जैनर्षयस्ते विजयन्ताम् । ___ उन भरत आदि क्षेत्रों से प्रत्येक क्षेत्र जिन मध्य गामिनी नदियों करके तीन या चार विभागोंको प्राप्त हो जाता है, श्री उमास्वामी महाराज उन नदियोंका निरूपण करनेके लिये अग्रिम सूत्रको कहते हैं। श्रद्धा लाकर सुनिये | गंगासिंधूरोहिद्रोहितास्याहरिद्धारिकांतासीतासीतोदानारी नरकांतासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदा सरितस्तन्मध्यगाः। १ गंगा २ सिंधु ३ रोहित् ४ रोहितास्या ५ हरित् ६ हरिकान्ता ७ सीता ८ सीतोदा ९ नारी १० नरकांता ११ सुवर्णकूला १२ रूप्यकूला १३ रक्ता १४ रक्तोदा ये चौदह महानदियां उन सात क्षेत्रोंके मध्यमें होकर गमन करती हैं । ___ सरितो न वाप्यः, तेषां भरतादिक्षेत्राणां मध्यं तन्मध्यं तन्मध्ये गच्छंतीति तन्मध्यगा इत्यनेनान्यथागतिं गंगासिंध्वादीनां निवारयति । ___ इस सूत्रमें सरित् शब्द इसलिये कहा है कि ये चौदह संख्यावाली नदियां हैं, बावडियां नहीं हैं। यद्यपि नन्दीश्वर द्वीपकी एक लाख योजन लम्बी, चौडी, और हजार योजन गहरी चौकोर बावडियां इन नदियोंसे द्विगुनी, तिगुनी, लम्बी और वीसों, पचासों, गुनी चौडी तथा सैकडों गुनी गहरी हैं। तथापि पर्वतसे धारारूप निकलकर नीची नीची भूमिमें गमन करते करते और परिवारको बढाते हुये महान् जलाशयमें मिल जाना यह नदियोंका लक्षण इन चौदह नदियोंमें अथवा अन्य नदियोंमें भी घटित हो जाता है । अतः वास्तविक रूपसे ये नदियां मानी गयी हैं । निम्नभूमिपर समतल अवस्थामें रुके हुये जलको धारने वाली वापियां इन नदियोंसे विलक्षण हैं। उन भरत आदि क्षेत्रोंके मध्य स्थानको तन्मध्य माना गया है । " उस तन्मध्यमें गमन कर रहीं हैं " इस निरुक्ति द्वारा ये नदिया " तन्मध्यगाः " कही जाती हैं। इस प्रकार तन्मध्यगा इस विशेषण करके गंगा सिन्धु आदि नदियोंकी कल्पित की गयी दूसरे प्रकार गतियोंका निवारण कर दिया जाता है । अर्थात्-ये नदियां क्षेत्रोंके मध्यमें बह रहीं हैं। आदि भाग, अन्तभाग, या बहिर्भागोंमें नहीं बहती हैं और अपनी गति अनुसार सदा गमन ही करती रहती हैं । स्थिर होकर नहीं बैठ जाती हैं। तत्र भरतक्षेत्रमध्ये गंगासिंध्वौ, हैमवतमध्यगे रोहिद्रोहितास्ये, हरिमध्यगे हरिद्धरिकांते, विदेहमध्यगे सीतासीतोदे, रम्यकमध्यगे नारीनरकाते, हैरण्यवतमध्यगे सुपर्णरूप्यकूले, ऐरावतमध्यगे रक्तारक्तोदे इति ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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