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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः कमलके बीचका कोष तो दो कोस लंबा, चौडा, गोल है, जो कि कर्णिका कही जाती है और इधर उधर चारों ओर एक एक कोस लंबे कई कमलपत्र हैं । इस कारण वह जलका फूल कमल तिस प्रकार अनादि कालीन पृथ्वी परिणामसे रचा हुआ बडे योजनसे एक योजन लम्बे चौडे परिमाणको धार रहा एक योजनका समझ लेना चाहिये । वह कमल कहां है ? इस आकांक्षाको शान्त करनेके लिये सूत्रकारने " तन्मध्ये " कहा है । अर्थात्-उस पद्मदके ठीक बीचमें जल तलसे दो कोस उठे हुये नालवाला, वज्रमणिमय जडका धारी, रजतमणिनिर्मित मृणालका धारक, और वैडूर्यमणिके दृढ नालको धार रहा वह पार्थिव कमल है, वनस्पतिकायका नहीं है । वनस्पतिकाय जीवकी उत्कृष्ट स्थिति केवल दश हजार वर्ष है। किन्तु यह कमल अनादिसे अनन्त कालतक सदृशपरिणामोंको धार रहा सुव्यवस्थित है । भले ही सूक्ष्म परिणतिओंके अनुसार अनन्त परमाणुयें उसमें आते, जाते रहें या पृथिवीकायिक जीव उपजते, मरते, रहें । किन्तु स्थूलपर्याय सदा एकसी बनी रहती है। शेषड्दपुष्करपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह । पहिले पद्म हृदसे अतिरिक्त बचे हुये पांच हृदोंमें स्थित हो रहे कमलोंकी लम्बाई चौडाई, गहराई के परिमाणों या परिणामोंकी प्रतिपत्ति करानेके लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं। तद्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च ॥ १९॥ ___ उस पद्म ह्रदसे दुगुनी दुगुनी, लम्बाई, चौडाई, और गहराईको धारनेवाले उत्तरवर्ती हृद और कमल हैं। उत्तर तथा दक्षिण, के हृद और कमलोंका परिमाण समान है। पद्म सरोवरसे महापनका क्षेत्रफल अठ गुना और पद्मसे तिगञ्छ ह्रदका क्षेत्रफल चौसठ गुना बडा है । ___ ततः पद्मदात् पुंडरीकइदाच्च द्विगुणद्विगुणा हुदा महापद्ममहापुण्डरीकादयः, योजनपरिमाणाच्च पुष्करादक्षिणादुत्तरस्माच्च द्विगुणद्विगुणानि पुष्करणि विष्कंभायामानीति वीप्सानिर्देशात् संप्रतीयंते “ उत्तरा दक्षिणतुल्याः " इति वक्ष्यमाणसूत्रसंबंधत्वात् । तत्संबंधः पुनबहुवचनसामर्थ्यादन्यथा द्विवचनप्रसंगात् तद्विगुणौ द्विगुणाविति । तदेवं उस पहिले पद्महदसे उत्तरकी और और छढे पुण्डरीक हृदसे दक्षिणकी ओरके महापद्म, महापुण्डरीक, आदिक ह्रद द्विगुनी द्विगुनी लम्बाई, चौडाई, और गहराईको धारनेवाले हैं तथा दक्षिण दिशावर्ती पहिले और उत्तरदिशावती अन्तके एक योजन परिमाणवाले कमलसे द्विगुने द्विगुने चौडाई, लम्बाई, परिमाणवाले परले, उरले, कमल हैं। इस बातकी " द्विगुणाद्विगुणा ” इस वीप्साके निर्देश कर देनेसे भले प्रकार प्रतीति होजाती है। श्री
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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