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तलावचिन्तामणिः
___ इस सूत्रमें पड़ा हुआ च शब्द तो पूर्वमें कहे जा चुके हेतुओंका एकत्रीकरण करनेके लिये है । अर्थात्-तीसरी भूमितक असुरकुमार भी नारकियोंको दुःख उपजाते हैं, और पूर्वसूत्र अनुसार परस्परमें भी उनको दुःखकी उदीरणा की जा रही है । अन्यथा योनी च शब्दका कथन नहीं करनेपर पहिली तीन भूमियोंमें पूर्वोक्त हेतुओंके अभावका प्रसंग आवेगा जो कि इष्ट नहीं है। यहां किसीका आक्षेप है कि पूर्व सूत्रमेंसे अव्यवहित होनेके कारण उदीरित शद्वकी अनुवृत्ति होय ही जायगी । पुनः इस सूत्रमें उदीरित शद्बका ग्रहण करना व्यर्थ है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि वह पूर्व सूत्रका उदीरित शब्द तो समास वृत्तिमें दूसरेके लिये विशेषण होकर गौण हो चुका है । अर्थात्-" पदार्थः पदार्थेनान्वेति नत्वेकदेशेन " पदार्थका पूरे पदार्थ के साथ अन्वय होता है, एक देशके साथ नहीं । देखो, भृत्यको यदि जल लानेके लिये कहा जाय या भोजन बनना देखनेको कहा जाय तो उस भृत्यका केवल हाथ या आंखें ही नहीं चले जाते हैं, किन्तु अंगोपांगसहित पूरा शरीर जाता है, अथवा कर्मचोर भृत्यका कोई भी अवयव नहीं जाता है । इसी प्रकार समासमें गौण हो चुके केवल उदीरित शद्बकी अनुवृत्ति नहीं हो सकती है । यदि आक्षेपकार पुनः यों कहे कि तब तो और भी अच्छा हुआ । समसितपद नहीं कहकर सूत्रकारको यों वाक्य ही कह देना चाहिये कि " परस्परेण उदीरितदुःखाः, संक्लिष्टासुरैश्च, प्राक् चतुर्थ्याः " अर्थात्-नारकी परस्पर करके उदीरित हुये दुःखवाले हैं और चौथी पृथ्वीसे पहिले संक्लिष्ट असुरों करके उदीरित हुये दुःखको भी भुगत रहे हैं, आचार्य कहते हैं कि यह तो ठीक नहीं । क्योंकि ऐसी दशामें उदीरित शब्द अवश्य ही व्यर्थ पडेगा। किन्तु आचार्यके व्यर्थ होरहे शब्दमें भी अटूट प्रमेय धन भरा हुआ है । अतः पुनः उदीरित शद्वका ग्रहण करना तो उदरिणाके कारण होरहे इतर प्रकारों का प्रदर्शन करने के लिये है, तिल करके यह भी कह दिया गया समझा जाता है कि कुम्भीपाक, लोहधनघात, आदि कारणोंसे भी नारकियोंको दुःख की उदीरणा होरही है । नरकोंमें तप्त लोहेके स्तम्भोंसे चिपटना, तीखे तलवार या छुरेसे काटा जाना, तपे तैलमें डुबो देना, हड्डियांमें पका देना, लोहके मौगरोंसे पीटा जाना, कोल्हूमें पिलना, तथा स्वयं नारकियों द्वारा विक्रिया कर लिये गये छि, व्याघ्र, ल्हिरिया, बिल्ली, नौला, गृद्ध, उल्लू, कौआ, चील, आदि वैक्रियिक देहधारी प्राणियों करके खाया जाना, आदिक कारणोंसे भी भारी दुःख उपजाये जारहे हैं । अब कोई पूछता है कि सूत्रकारका उक्त सिद्धान्त फिर मिस युक्ति के आधारपर समझ लिया जाय ? इसका समाधान करनेके लिये श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम वार्तिकोंको कहते हैं।
संक्लिष्टैरसुरैर्दुःखं नारकाणामुदीर्यते । मेषादीनां यथा ताहरूपैस्तिसृषु भूमिषु ॥ १ ॥ परासु गमनाभावाचेषां तद्वासिदेहिनां । दुःखोत्पचौ निमित्त्वमसुराणां न विद्यते ॥२॥