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तत्वार्थकोकवार्तिके
अन्योदीरितदुःखाश्च ते इत्याह । ___ तथा अन्य कारणोंसे भी उदीरणा प्राप्त हुये दुःखोंको धारनेवाले वे नारकी जीव हैं, इस सिद्धान्तको प्रकट करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं ।
संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राकचतुर्थ्याः ॥५॥ ___ चतुर्थी भूमिसे पहिले यानी तीसरी तक संक्लेशको प्राप्त हो रहे कतिपय असुरकुमार जातिके देवों करके उदीरणाको प्राप्त किये जा रहे दुःखको झेलनेवाले भी नारकी है।
__ पूर्वभवसंक्लेशपरिणामोपात्ताशुभकर्मोदयात् सततं क्लिष्टाः संक्लिष्टा असुरनामकर्मोदयादमुराः संक्लिष्टाश्च तेऽसुराश्चेति । सलिष्ठविशेषणमन्यासुरनिवृत्यर्थे, असुराणां गतिविषयनियमप्रदर्शनार्थ पाश्चतुर्थ्या इति वचनं । आडो ग्रहणं लघ्वर्थमिति चेन्न, संदेहात् ।
पूर्व जम्ममें भावना किये गये अत्यन्त संक्लेश परिणाम करके उपार्जित अशुभ कर्मका उदय हो जानेसे नित्य ही क्लेश युक्त हो रहे जीव संक्लिष्ट कहे जाते हैं । देव गतिकी उत्तरोत्तर भेदरूप असुर नामकर्म प्रकृतिके उदयसे हुये जीव असुर हैं । संक्लिष्ट हो रहे जो वे असुर देव हैं इस प्रकार कर्मधारय वृत्ति करके “ संक्लिष्टासुराः " शब्द्वको बना लेना चाहिये । सम्पूर्ण असुरकुमार देव तो नारकियोंको दुःख नहीं उपजाते हैं । किन्तु अम्बावरीष आदि कोई कोई असुरकुमार ही कलहप्रिय हो रहे उन नारकियोंको भिडाते रहते हैं | इस कारण अन्य भद्र असुरोंकी निवृत्तिके लिये सूत्रमें असुर शब्दका विशेषण " संक्लिष्ट " पद दे रक्खा है । दुःख वेदनाकी उदीरणाके कारण बन रहे संक्लिष्ट असुरोंकी गति तीन पृथ्वियोंमें ही है, इससे नीचे नहीं है । इस गति विषयक नियमका प्रदर्शन करानेके लिये सूत्रमें चतुर्थीसे पहिले पहिले यह वचन कहा है । कोई प्रश्न करता है कि प्राक् शब्दकी अपेक्षा भाङ्का ग्रहण लाघवके लिये उचित है “प्राक्चतुर्थ्याः " की अपेक्षा आचतुर्थ्याः कहनेमें परिणामकृत लाघव है । सूत्रकारको एक एक मात्राके लाघवपर लक्ष्य रखना चाहिये। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तुच्छता प्रदर्शक लाघव तो नहीं दिखलाना चाहिये, क्योंकि संदेह हो जायगा । आङ निपातका अर्थ तदरहित मर्यादा और तत्सहित अभिविधि दोनों होते हैं । ऐसी दशामें संशय हो सकता है कि चतुर्थी भूमि भी ली गयी है ? अथवा क्या उससे प्रथम तीसरी भूमितक ही असुर जाते हैं । ऐसी दशामें कोई चतुर्थी भूमिको भी ले लेते। अतः संदेहकी निवृत्ति के लिये स्पष्ट रूपसे प्राक् शब्दका कथन करना सूत्रकारको समुचित पडता है।
चशद्धः पूर्वहेतुसमुच्चयार्थः । अनंतरत्वादुदीरितग्रहणस्येहानर्थक्यमिति चेन्न, तस्य वृत्तौ परार्थत्वात् । वाक्यवचनमिति चेत्र, उदीरणहेतुप्रकारप्रदर्शनार्थत्वात् पुनरुदीरितग्रहणस्य । तेन कुंभीपाकायुदीरितदुःखाचेति प्रतिपादितं भवति । कथं पुनः