________________
१९८
तत्वार्थ लोकवार्तिके
सदासे पृथिवीयोंको धार रही बनी बैठी है । यदि कोई यहां यों कहे कि इन आत्मा आदिक आधार और अमूर्तपन आदि आधेयोंमें अनादि होने से सदा वह " आधारआधेयभाव " बन रहा है । यों कहने पर तो हम जैन कहते हैं कि तिस ही कारणसे यानी अनादि होनेसे ही भूमि और गन्धवाह यानी वायुका भी तिस प्रकार सदा वह आधार आधेय भाव हो जाओ । तिस कारण से सिद्ध होता है कि भूमियां सर्वदा नीचे नीचे नहीं पडती रहती हैं, क्योंकि इसमें कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है
1
एतेन सर्वदोत्पतंत्येव तिर्यगेव गच्छंतीति वा निरस्तं, धारकस्य वायोरबाधितस्य सिद्धेस्तदवस्थानाविरोधात् ।
इस उक्त कथन करके इन मतों का भी खण्डन कर दिया गया समझो कि भूमियां सर्वदा उछती ही रहती हैं अथवा भूमियां सर्वदा तिरछी ही चलती रहती हैं, क्योंकि इन दोनों मतोंका पोषक बलवान् प्रमाण नहीं है, जब किं भूमियोंको धारनेवाले वायुकी बाधारहित हो रही सिद्धिकी जा चुकी । इस कारण उन भूमियों के ठीक ठीक ज्यों के त्यों अवस्थित बने रहने का कोई विरोध नहीं आता है।
कश्चिदाह-विवादापन्ना भूमिर्भूम्यंतराधारा भूमित्वात्तथा प्रसिद्ध भूमिवत् । साप्यपरा भूमिर्भूम्यंतराधारा भूमित्वात्तथा प्रसिद्धभूमिवत् साप्यपरा भूमिर्भूम्यंतराधारा तत एव तद्वदिति शश्वदपर्यंता तिर्यगधोपीति तं प्रत्याह ।
यहां कोई विद्वान् पूर्वपक्ष उठाकर कर रहा है कि विवादमें प्राप्त हो रही भूमि ( पक्ष ) अन्य दूसरी भूमिके आधारपर जमी हुई है ( साध्य ) भूमि होनेसे ( हेतु ) तिस प्रकार प्रसिद्ध हो रही इस चित्रा भूमिके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । और वह नीचिली दूसरी भूमि भी ( पक्ष ) अन्य तीसरी भूमिके आधारपर स्थिर है | ( साध्य ) भूमि होनेसे ( हेतु ) तिस प्रकार प्रसिद्ध हो रही वज्रा भूमिके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । तथा वह तीसरी निराली भूमि भी ( पक्ष ) भिन्न चौथी भूमिपर घरी हुई है ( साध्य ) तिस ही कारणसे यानी भूमि होने से ( हेतु ) उस ही प्रसिद्ध हो रही वैडूर्य भूमिके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार चौथी भूमि पांचवीपर और पांचवी छट्ठीपर यों पुनः पुनः निरन्तर चलते हुये इधर उधर तिरछी अनन्त और नीचे नीचे भी अनन्त भूमियां हैं । अनादि कालके समान भूमियोंका कोई पर्यन्त स्थान नहीं है, यहांतक कोई ज्ञानलवदुर्विदग्ध कह रहा है, उसके प्रति श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान वचन कहते हैं ।
नापर्यंता धराधपि सिद्धा संस्थानभेदतः । धरवत्खमपर्यंतं सिद्धं संस्थानवन्न हि ॥ १४ ॥
नीचे नीचे भी पृथ्वियां अनन्त संख्यावालीं सिद्ध नहीं हैं ( प्रतिज्ञा ) विशेष रचना होनेसे ( हेतु ) पर्वत के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । जो परिदृष्ट विशेष संस्थानवाला नहीं है वह पदार्थ