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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः अथ तृतीयोऽध्यायः चतुरस्रघनाकारा लोकस्थं वो विलोकयन् । हस्तामलकवल्लोकं श्री सुपार्थः श्रियं क्रियात् ॥१॥ श्री उमास्वामी महाराजने प्रथम अध्यायमें जीवके स्वाभाविक अनुजीवी गुण हो रहे सम्यादर्शन, और चारित्र या जीवके पार्श्ववर्ती आनुषंगिक तत्व तथा ज्ञान और नयोंका निरूपण किया है । दूसरे अध्यायमें विशेष भेददृष्टि अनुसार जीवके अन्तरंग आधार क्षेत्र स्वतत्त्व, उपयोग, आदिका वर्णन करते हुये जीवके बहिरंग क्षेत्रकी ओर लक्ष्य देकर योनि, जन्म, शरीरोंका प्रतिपादन किया है । अब तीसरे अध्यायमें भेददृष्टिको बढाते हुये जीवके उपचरित असद्भूतन्यवहारनय अनुसार बहिरंग क्षेत्रके भी बहिरंग हो रहे स्थानविशेषोंका निर्णय कराते हुये अलोकस्थ, लोकाकाशके अधोलोक और मध्य लोककी प्रतिपत्ति शिष्यों को करानेके लिये श्री उमास्वामी महाराज तृतीय अध्यायको रचते हैं । मोक्षमार्ग हो रहे सम्यग्दर्शनके विषय जीवादि पदार्थोकी विशेषतया विज्ञप्ति करनेके लिये यह लोकालोकका विभाग समझ लेना अत्युपयोगी है । अनुप्रेक्षा चिंतन या ध्यान करनेमें भी इसकी आवश्यकता है । जगत्के सम्पूर्ण पदार्थोंमें सबसे अधिक लम्बा, चौडा, मोटा, द्रव्य आकाश है। " सव्वायासमणतं " अनन्तानन्त नामकी संख्याके मध्य भेदोंमें सर्वज्ञदृष्ट और गणित शास्त्र द्वारा हमको निर्णीत एक विशेष संख्या अनन्तानन्त है। उस अनन्तानन्त परिमाणवाले प्रदेशों बराबर लम्बा और उतना ही चौडा तथा ठीक उतना ही मोटा घन चौकोर आकाश द्रव्य है। आकाशको यदि गोल माना जायगा तो सब ओर आकाश अनन्तानन्त प्रदेशवाला है, इस सिद्धान्तसे विरोध पड जायगा । गोल वस्तुके मध्यभाग पेटको पूर्वसे पश्चिम या उत्तरसे दक्षिण नापा जाय तो उसके प्रदेश ठीक उतने ही बराबर बैठ जायंगे। किन्तु गोल वस्तुकी बगलसे ऊपर नीचेका देश नापा जायगा तो प्रदेशोंकी संख्या उत्तरोत्तर घटती जायगी। यहांतक कि गुलाईके अप्रभागपर पहुंचते हुये तो अत्यल्प प्रदेशों या एक प्रदेशकी ही उच्चाई, निचाई, रह जायगी । जब कि आकाश सब ओरसे ठीक उतने ही यानी न्यून अधिक नहीं अनन्तानन्त प्रदेशोंका धारी है तो निकोना, पचकोना, गोल या लंबोतरा, चौकोर आदि संस्थान उसके कथमपि नहीं हो सकते हैं। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित त्रिलोकसारमें द्विरूप वर्गधाराका निरूपण करते समय “तिविह जहण्णाणतं वग्गसलादलछिदी समादिपदं, जीवो पोग्गल कालो सेढी आगास तप्पदरम् " इस गाथा अनुसार जघन्य अनन्तसे अनन्त स्थान आगे चलकर द्विरूपवर्गधारामें जीव राशिकी अक्षय अनन्तानन्त परिमाण संख्या आई बताई है। उससे अनन्तानन्त गुणी पुद्गल राशि है। पुद्गलोंसे भी अनन्तनन्त गुणे व्यवहार कालके समय
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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