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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः २२९ ऊपर जम रहे पौद्गलिक कर्मोको नहीं स्वीकार कर रहा है । इस प्रकार मान रहे वैशेषिकोंके प्रति आचार्य महाराज समाधानवचन कहते हैं । कर्म पुद्गलपर्यायो जीवस्य प्रतिपद्यते । पारतंत्र्यनिमित्तत्वात्कारागारादिबंधवत् ॥४॥ जीवके कर्म तो पुद्गलकी पर्याय समझे जा रहे हैं ( प्रतिज्ञा ) जीवकी परतंत्रताके निमित्त कारण होनेसे ( हेतु ) कारागार ( जेलखाना ) सांकल, लेज, आदिके बंध समान ( अन्वयदृष्टान्त )। अर्थात्-देवदत्त या गायको जेल घर या सांकलमें बांध दिया जाय ऐसी दशामें वह बंधन उन आत्माओंका निजगुण नहीं है, किन्तु पौद्गलिक है। इसी प्रकार जीवकी परतंत्रताका निमित्तकारण हो रहा कर्म पदार्थ भी आत्मासे विजातीय द्रव्य माने गये पुद्गलकी पर्याय है । क्रोधादिभिर्व्यभिचार इति चेन्न, तेषामपि जीवस्य पारतंत्र्यनिमित्तत्वे पौगलिकत्वोपपत्तेः । चिद्रूपतया संघद्यमानाः क्रोधादयः कथं पौद्गलिकाः प्रतीतिविरोधादिति चेत् न, निर्हेतोर्व्यभिचारायोगात् तेषां पारतंत्र्यनिमित्तत्वाभावात् । द्रव्यक्रोधादय एव हि जीवस्य पारतंत्र्यनिमित्तं न भावक्रोधादयस्तेषां स्वयं पारतंत्र्यरूपत्वाद्र्व्यक्रोधादिकर्मोदये हि सति भावक्रोधाद्युत्पत्तिरेव जीवस्य पारतंत्र्यं न पुनस्तत्कृतमन्यत्किंचिदिस्यव्यभिचारी हेतुर्नागमकः सदा। ___ यदि कोई यों कहे कि क्रोध, अभिमान, आदि करके आप जैनोंके हेतुका व्यभिचारदोष आता है। देखो, क्रोध आदिक भाव भला जीवको परतंत्र करने के निमित्त तो हैं, किन्तु पुद्गलकी पर्याय नहीं हैं। जीवके औदयिकभाव वे क्रोधआदिक तो स्वतत्त्व माने गये हैं । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि जीवकी पराधीनताके निमित्त होनेपर उन क्रोध आदिकोंको भी पुद्गल निर्मितपना बन जाता है। हेतुके रहनेपर साध्य भी रहजाय ऐसी दशामें व्याभिचारदोष नहीं आता है। कहीं तो पुद्गल निमित्त है, कचित् पुद्गल उपादान कारण है, वे सभी कार्य पौद्गलिक हैं । यदि वैशेषिक. फिर यों कहें कि क्रोध आदिक तो जीवके निज चैतन्य रूप करके सम्वेदन किये जा रहे हैं, वे आत्मीय पदार्थ भला कैसे पुद्गलके परिणाम माने जा सकते हैं ? क्योंकि प्रतीतियोंसे विरोध हो जावेगा, यानी क्रोध आदिक यदि पुद्गलकी पर्याय होते तो घट, पट, आदिके समान बहिर्भूत देखे जाते और साधारण जीव भी उनको बहिरंग इन्द्रियों द्वारा देख लेते । किन्तु देवदत्तके क्रोधका उसीके अंतरंगमें चेतन आत्मकपने करके सम्वेदन हो रहा है । दूसरे जीवोंको देवदत्तके क्रोधका इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष हो नहीं पाता है। ग्रंथकार कहते हैं कि यह आक्षेप नहीं करना । क्योंकि हेतुके नहीं ठहरनेसे व्यभिचार नहीं हो पाता है। जहां हेतु तो ठहर जाय और साध्य नहीं ठहरे वहां व्यभिचार दिया जा सकता है ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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