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________________ २२८ लोकवार्त यहां नैयायिक या वैशेषिककी ओरसे स्वपक्षका अवधारण है कि स्वार्थमें अण् प्रत्यय करनेपर कर्म ही कार्मण शरीर है यों इस पक्षमें वह कार्मण तो कोई शरीर नहीं है, प्रत्युत वह अदृष्ट तो बुद्धि, सुख, दुःख आदिके समान पुरुषका विशेष गुण है, जिसको आप जैन कर्म कहते हैं । उसको म यहां अदृष्ट यानी पुण्य, पाप, कहा गया है। इस प्रकार अनुमान बनाकर कोई वैशेषिक कह रहा है, उसके प्रति आचार्य महाराज वार्त्तिक द्वारा समाधान कहते हैं, उसको सुनिये । कर्मैव कार्मणं तन्न शरीरं नृगुणत्वतः । इत्यसद्द्रव्यरूपेण तस्य पौद्गलिकत्वतः ॥ ३ ॥ कर्म ही कार्मण है जो कि धर्म, अधर्म, कहे जाते हैं वह कर्म ( पक्ष ) शरीर नहीं है, ( साध्य ) आत्माका विशेष गुण होनेसे ( हेतु ) बुद्धि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) यों वैशेषिकोंका कहना सत्यार्थ नहीं है। क्योंकि उस कर्मको द्रव्यरूपसे पुद्गलों करके निर्मितपना सिद्ध हो रहा है 1 अर्थात् — कर्म यदि आत्माके गुण होते तो आत्माको पराधीन नहीं कर सकते थे। जो जिसका गुण होता है वही उसको परतन्त्र नहीं बना देता है। जब कि यह संसारी जीव परवश हो रहा है, अतः सिद्ध हो जाता है कि कर्म विजातीय पौद्गलिक द्रव्य हैं । द्रव्यका निज गुण उसको विभाव अवस्था नहीं पटक देता है । निजगुणोंको नाश करनेके लिये मुमुक्षुका प्रयत्न नहीं होता है । अन्यथा आत्म I द्रव्यका ही नाश हो जायगा । न हि कर्म धर्माधर्मरूपमदृष्टसंज्ञकं पुरुषविशेषगुणस्तस्य द्रव्यात्मना पौगलिकत्वात्ततो नाशरीरत्वसिद्धिः । 1 1 वैशेषिकोंके यहां जिनकी संज्ञा अदृष्ट मानी गयी है, ऐसे धर्म, अधर्मस्वरूप कर्म तो आत्मा के विशेष गुण नहीं हैं । क्योंकि द्रव्यस्वरूपसे वे पुद्गल के गढे हुये हैं । तिस कारण कर्मोंको शरीर रहितपनकी सिद्धि नहीं है । संसारी आत्माका सूक्ष्मशरीर पौद्गलिककर्म है, जो कि आत्मद्रव्यसे भिन्न द्रव्यपुद्गलका बन रहा औपाधिक शरीर है, जैसे कि अस्थिमांस रक्तमय यह दृश्यमान स्थूल शरीर पुद्गल निर्मित है । भावकर्मैवात्मगुणरूपं न द्रव्यकर्म पुद्गलपर्यायत्वमात्मसात्कुर्वत्प्रसिद्धमिति मन्यमानं प्रत्याह । वैशेषिक कहते हैं कि जैन पण्डित भी राग, द्वेष, अज्ञान, ईर्ष्या, अनुत्साहको भावकर्म मानते हुये आत्माका गुण विभाव परिणाम ) मानते ही हैं । सच पूछो तो आत्मामें अज्ञान, राग, द्वेष, आदि भावकर्म ही आत्माके गुणस्वरूप हो रहे विद्यमान हैं । पुण्यकर्म तो पुद्गलके पर्यायपनको अपने अधीन करता हुआ कोई आजतक प्रसिद्ध नहीं है । कोई भी दार्शनिक विचारा अमूर्त आत्माके
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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