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________________ २२० तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके तैजस है, किन्तु आहारकसे अनन्तानन्तगुणा कार्मण है । भले ही सामान्यरूपसे कार्मण शरीरको आहारक या तैजससे अनन्तगुणा कह दिया जाय, किन्तु उस अनन्तके प्रकार अनंतानन्त हैं । आहारक शरीरसे तैजसशरीरका अनन्तगुणपना भिन्न ही है और तैजस शरीरसे कार्मणशरीरका अनन्तगुणा निराला ही है । पांच रुपयोंसे एक हजार हो जानेपर सैकडों गुणी वृद्धि कही जाती है । और चार हजार हो जानेपर भी सैकडों गुणी बढवारी समझी जाती है। परस्मिन् सत्यारातीयस्यापरत्वात्परे इति निर्देशो न प्रसज्यते बुद्धिविषयव्यापारादुभयोरपि परत्वोपपत्तेः । व्यवहितपि वा परशदप्रयोगात् ।। यहां किसी जिज्ञासुका आक्षेप है कि भले ही सैकडों, हजारों, पदार्थ क्यों नहीं होय, परशद्बसे अन्तका एक ही पकडा जावेगा, जैसे कि लाखोंमेंसे आद्य एक ही लिया जाता है । अतः " भाये" या " परे" इस प्रकार द्विवचनान्त पदका प्रयोग करना ही अलीक है। " परापरे" कह सकते हो। परले एक कार्मण शरीरके होते सन्ते उसके निकट पूर्ववर्ती तैजस शरीरको परपना नहीं प्राप्त होता है। इस कारण तैजस और कार्मणके लिये सूत्रमें सूत्रकार द्वारा प्रयुक्त किया गया द्विवचनान्त "परे" यह यों कथन करना प्रसंगप्राप्त नहीं हो पाता है। एक वचनांत "परम्" शब्द कहना चाहिये । अब आचार्य कहते हैं कि यह प्रसंग उठाना ठीक नहीं है। क्योंकि बुद्धिके विषय हो रहे व्यापारसे दोनों तैजस, कार्मण शरीरोंको भी परपना बन जाता है । अर्थात्-पदार्थोकी परिणति तुम कहते हो वैसी ही है। आद्य पदार्थ या पर पदार्थ एक ही हो सकता है । किन्तु अपनी अपनी बुद्धिके विचार अनुसार दो, चार, दस, बीस, पदार्थ भी आद्य या पर कहे जा सकते हैं। जैसा मनमें विचार लिया जाता है वैसा बहिरंगमें व्यवहार कर दिया जाता है। अपनी अपनी बुद्धि विचारोंके सभी जीव स्वायत्त शासन करनेवाले राजा हैं । अतः दोनों शरीरोंमें भी बुद्धिकृत परत्व सध जाता है। बुद्धिमें तिरछा फैलाकर आहारसे परले दो तैजस, कार्मण, शरीरोंको " अनन्त गुणेका" व्यपदेश है। शब्दके उच्चारणके क्रमसे दो में परपना कथमपि नहीं आ सकता है । दूसरी बात यह है कि व्यवधान युक्त पदार्थमें भी पर शब्दका प्रयोग हो रहा देखा जाता है। जैसे कि काशीसे सम्मेदशिखर तीर्थ परे है, उसी प्रकार यहाँ आहारकसे तैजसको परत्व समुचित है । साथमें तैजससे व्यवधानको प्राप्त हो रहे भी कार्मणको आहारककी अपेक्षा परपना है। ननु च यदि प्रदेशापेक्षया परं परमसंख्येयगुणमनंतगुणं चोच्यते सूक्ष्मं कथमित्याह । यहां कोई शंका करता है कि प्रदेशोंकी अपेक्षा करके यदि परले, परले, शरीरोंको असंख्यात गुणा और अनन्तगुणा कहा जाता है तो ऐसी दशामें वे परले परले शरीर सूक्ष्म कैसे कहे जा सकेंगे ? परमाणुओंके बढ जानेसे परले, परले शरीर लम्बे चौडे महान् बन बैठेंगे, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा समाधानको कहते हैं।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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