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________________ तत्वार्थ लोकवार्त चाहिये । प्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों कहनेसे बडे भारी ग्रन्थगौरव दोष हो जाने का प्रसंग होगा। गर्भजन्म और उपपाद जन्मके अनन्तर शेषजीवों के सन्मूर्छन जन्म होता है, इस प्रकार लघु उपाय करके निर्देश करना अच्छा बन जाता है । अर्थात् यदि आदिमें सन्मूर्छन जन्मवाले जीवोंका कथन किया जाता तो एकेंद्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा कितने ही बहु भाग पंचेन्द्रिय तिर्यच और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यके सन्मूर्छन जन्म होता है । इतना लम्बा सूत्र कहने से शास्त्रका व्यर्थ बोझ बढ जाता । किन्तु दो प्रकारके जीवोंका निरूपण कर, पुनः शेषोंके सन्मूर्छन जन्म होता है, यों थोडेसे अक्षरोंमें ही अधिक प्रयोजन स 1 २०८ = कुतः पुनर्जरायुजादीनां गर्भ एव युक्त इत्याह । जरायुज आदिक जीवोंके गर्भ ही होता है यों विधेय दलमें एवकार लगाना, फिर किस प्रमाणसे युक्त सिद्ध कर दिया गया है ? बतलाइयेगा, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी कहते हैं कि — युक्तो जरायुजादीनामेव गर्भोवधारणात् । देवनारकशेषाणां गर्भाभावविभावनात् ॥ १ ॥ जरायुज आदिक जीवोंके ही गर्भ जन्म मानना युक्त है। क्योंकि यों उद्देश्य दलमें एवकार द्वार अवधारण कर देनेसे देव और नारकी तथा शेष एकेन्द्रियादि जीवोंके गर्भके अभावका विचार कर लिया जाता है । तथा विधेय दलमें एवकार लगानेसे जरायुज आदि जीवों के गर्भ से अतिरिक्त उपपाद और सम्मूर्छन जन्मोंका निषेध हो जाता । अतः अन्ययोगव्यवच्छेदक और अयोग व्यवच्छेदक दो एवकारों द्वारा दोनों ओर ताले लगाकर अवधारण कर दिया है अथवा पहिला अवधारण ही लगाना ठीक है । " देवनारकाणामुपपादः " और " शेषाणां संमूर्च्छनं " इन सूत्रोंके उद्देश्य दलमें एवकार लगाना आवश्यक ही होगा । उसीसे यहांके " गर्भ एव इस अवधारण द्वारा होने योग्य "" कार्यको साध लिया जावेगा । यदि हि जरायुजादीनां गर्भ एवेत्यवधारणं स्यात्तदा जरायुजादयो गर्भनियताः स्युः गर्भस्तु तेष्वनियत इति देवनारकेषु शेषेषु सप्रसज्येत । यदा तु जरायुजादीनामेवेत्यवधारणं तदा तेषु गर्भाभावो विभाव्यत इति युक्तो जरायुजादीनामेव गर्भः । कारण कि जरायुज आदिक जीवोंके गर्भ ही होता है, यदि इसी प्रकार विधेय दलके साथ एवकार लगाकर अवधारण किया जाता तब तो जरायुज आदिक जीव अकेले गर्भ जन्म होते, उनके सन्मूर्छन जन्म और उपपाद जन्मकी व्यावृत्ति हो जाती, किन्तु उन ही जीवोंमें गर्भ तो नियत न होता । अतः देव और नारकी तथा शेष एकइन्द्रियादि जीवोंके भी वह गर्भजन्म प्रसंग प्राप्त हो जाता जोकि इष्ट नहीं हैं। हां, जब जरायुजादिकों के ही गर्भ होता है यों पूर्व दलमें एव लगाकर अवधारण
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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