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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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रूप मिश्र एवं संवृत और विवृत रूप मिश्र यों जान लिया जाता है। सचित्त शीतका मिला हुआ या शीत और संवृत्तका मिला हुआ मिश्र नहीं समझ बैठना चाहिये । इस प्रकार उस जन्मकी योनियोंके नौ भेद प्रतीत हो रहे हैं । सूत्रमें पडा हुआ तत् शब्द तो प्रकरण प्राप्त सम्मूर्छन आदि जन्मोंकी अपेक्षा रख रहा है I
सचिचादीनां द्वंद्वे पुंवद्भावाभावो भिन्नाश्रयत्वादित्येके, तदयुक्तं । पुल्लिंगस्य योनिशह्वस्येद्दाश्रयणात्तस्योभयलिंगत्वात् । स्त्रीलिंगस्य वा प्रयोग औत्तरपदिकस्वत्वस्य विधानात् द्रुतायां तपरकरणे मध्यमक्लिंबितयोरुपसंख्यानमित्यत्र द्वंद्वेपि तस्य दर्शनात् ।
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कोई एक पण्डित यहां कह रहे हैं कि सचित्ता, अचित्ता, आदि स्त्रीलिंग पदोंका द्वन्द्व समास करनेपर विभिन्न आश्रय होनेसे पुंबद्भाव होकर ह्रस्व नहीं हो सकता है । यानी जब कि सचित्ता योनि न्यारी है और शीता योनि भिन्न है तो एकाश्रय नहीं बनता है । हां, सचित्तस्वरूप ही जो अचित्ता यों सामानाधिकरण्य होता तो पुंवद्भाव हो सकता था। आचार्य कहते हैं कि वह उनका कहना अयुक्त है। क्योंकि “योनिर्द्वग्यो” यों अमरकोषके वाक्य अनुसार वह योनि शद्व पुल्लिङ्ग और स्त्रीलिंग दोनों लिंगोंमें प्रवर्तता है। यहां पुल्लिङ्गके योनि शद्बक़ा आश्रय किया गया है । अतः सचित्तः, शीतः संवृतः, यों पुल्लिङ्ग शद्वका सम्रास कर " सूचितशीतसंवृतमः शब्द बना लेना चाहिये । अथवा स्त्रीलिङ् भी योनि शब्दका प्रयोग करनेपर उत्तर पढके अनुसार ह्रस्व होने का विधान है । मध्यमा च विलंबिता च " मध्यमत्रिलंबिते ” यह्नां द्रुतायान्तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानं इस वार्त्तिक अनुसार उत्तरपढ़के परे रहते उस ह्रस्व हो जानेका विधान देखा जाता है ।
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योनिजमनोरविशेष इति चेन्न, आधाराधेयभेदाद्विशेषोपपत्तेः । सचित्तग्रहणमादौ तस्य चेवतात्मकत्वात्तदनंतरं शीताभिधानं तदाप्यायनहेतुत्वात् । अंते संवृतग्रहणं गुप्तरूपत्वात् व्रत्राचित्तयोनयो देवनारकाः, गर्भजा मिश्रयोनयः, शेषास्त्रिविकल्पाः ।
कोई आक्षेप करता है कि योनि और जन्ममें कोई अन्तर नहीं है । जो ही जन्म है वही है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं समझ बैठना । क्योंकि आधार और आधेयके भेद से योनि और जन्ममें विशेषता बन रही है। योनि आधार है, जन्म आधेय है। सचित्त आदि योनियोंमें जीव सम्मूर्छन आदि जन्मों करके पुद्गलोंका ग्रहण करता है । यहां सूत्रके आदिमें प्रधान चेतन आत्मक होने से सविता ग्रहण किया है। उसके पश्चात् उस सचित्त अर्थ की वृद्धिका कारण होनेसे शीतका कथन किया गया है । अन्तमें गुप्तरूप होनेसे संवृतका ग्रहण है । उन नौ योनियोंमें देव और नारकी जीवोंकी योनि अचित्त है । क्योंकि उनके उपपाद स्थानोंमें किसी भी जीनका सम्बन्ध नहीं है । गर्भज जीवों की योनि साचित, अचिन्त मिली हुयी है। अर्थात् माताके उदरमें शुक्र, शोणित, तो अचित्त हैं । किन्तु गर्भाशयका स्थान जीवित हो रहा सचित्त है । मरे हुये गर्भाशयमें यदि शुक्र, शोणित, रख दिये जांय
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