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तार्थचिन्ताममिः
यदप्युक्तं, महेश्वरज्ञानस्य नित्यवे प्रमाणफलत्वाभाव इति, तदप्ययुक्तं । तस्योपचारतः प्रमाणफलत्वोपपत्तेः। यथैच ईश्वरस्यांत:करणसंयोगादिसामग्री नित्यज्ञानस्याभिव्यञ्जिकत्वादुपचारतः प्रमाणं तथा तद्यंग्यत्वान्नित्यस्यापीश्वरज्ञानस्योपचारतः प्रमाणफलत्वमुपपद्यत एव । न चाभिव्यक्तिरुत्पत्तिरेव सामान्यादेः स्वव्यक्तिभिरभिव्यंग्यस्योत्पत्तिमत्त्वप्रसंगात् । ततो नित्यमेवेश्वरज्ञानमिति । तेन हेतोर्व्यभिचार एव ।
और भी वैशेषिकोंने जो यह कहा था कि महेश्वरका ज्ञान यदि नित्य माना जायगा तो वह प्रमाणका फल नहीं हो सकेगा। आचार्य कहते हैं कि यों वह कहना भी युक्तियोंसे रीता है। कारण कि ईश्वरज्ञानको उपचारसे प्रमाणका फलपना सधता है । जिस ही प्रकार तुम्हारे यहां ईश्वरके साथ अंतःकरणका संयोग होजाना आदि सामग्री ईश्वरके नित्यज्ञानकी अभिव्यञ्जक होनेसे उपचारसे प्रमाण मान ली गयी है, उसी प्रकार उस सामग्रीसे व्यंग्य होनेसे नित्य भी ईश्वरज्ञानको उपचारसे प्रमाणका फलपना बन जाता ही है, सर्वज्ञके ज्ञानमें प्रमाणघना और फलपना अभिन्न ही है, उपचारसे भले ही न्यारा न्यारा कल्पित कर लो । ज्ञप्ति सामग्रीको प्रमाण कह लो, साथमें ज्ञप्तिको फल कहलो। सामग्रीद्वारा अभिव्यक्ति होजाना ही ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं है। अन्यथा अपनी अभिव्यंजक आश्रय व्यक्तियोंसे प्रकट होने योग्य सामान्य ( जाति ) समवाय, आदिको भी उत्पत्तिमान् हो जानेका प्रसंग होगा । किन्तु सामान्य और समवाय पदार्थको तुमने नित्य माना है। तिस कारणसे सिद्ध होता है कि ईश्वरका ज्ञान नित्य ही है । ऐसा होनेपर उस ईश्वर ज्ञानकरके तुम्हारे आत्माको व्यापक साधनेके लिये दिये गये नित्य होते हुये अमूर्तपन हेतुका व्यभिचार दोष तदवस्थ ही रहा । ईश्वरका ज्ञान नित्य है। अमूर्त भी है किन्तु व्यापक नहीं है । आत्माको व्यापक माननेवाले वैशेषिकोंने आत्माके ज्ञानगुणको व्यापक नहीं माना है, शरीरावच्छेदेन आत्मामें ज्ञान है, घटावच्छेदेन आत्मामें ज्ञान नहीं है । ऐसा उनका अभिमत है।
____ भवतु वा महेश्वरज्ञानमनित्यं तथापि सलिलपरमाणुरूपादिभिरस्यानैकांतिकता दुष्परिहरेत्यलं प्रसंगेन, सर्वथात्मनो गतिमत्त्वस्य प्रतिषे मशक्तः।
अथवा तुम्हारे मन्तव्य अनुसार भले ही महेश्वरका ज्ञान अनित्य हो जाओ । अतः पूरा हेतु नहीं घटनेसे ईश्वर ज्ञानकरके व्यभिचार दोष नहीं हो सकता है तो भी जल परमाणुके या अग्निपरमाणुके रूप रस आदि करके इस प्रकृतहेतुका व्यभिचार दोष आना कथमपि टाला नहीं टल सकता है । पृथिव के परमाणुओंके रूप, रस, आदिक अनित्य हैं । वे पाकज माने गये हैं। किन्तु जल, तेज, वायुके परमाणुओंके रूप, रस, आदि गुण नित्य हैं। साथमें जलपरमाणु या अग्नि परमाणु भले ही मूर्त होय, किन्तु इनके गुण तो मूर्त नहीं हैं । अमूर्त हैं । अतः नित्यत्वे सति अमूर्तत्व हेतुका पूरा शरीर घटित हो जानेसे और व्यापकत्व साध्यके नहीं ठहरनेसे,