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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
तत्प्रमाणत्वोपगमे तथैव प्रमाणांतरागृहीतग्राह्यनुभवस्मरणप्रत्यभिज्ञानादिसंतानस्य प्रवर्तमानस्यागृहीतग्राहित्वात् प्रमाणत्वमस्तु । यदि पुनरनुभवादीनामेकसंतानत्वेप्यनुभवगृहीतेर्थे स्मरणादेः प्रवृत्तेरप्रमाणत्वं तदा प्रथमज्ञानेन परिच्छिन्नेर्थे तदुत्तरोत्तरधार वाहिविज्ञानानां कुतः प्रमाणत्वं । तदुपयोगविशेषादिति चेत्, तत एव स्मृत्यादीनां प्रमाणत्वमस्तु सर्वथा विशेष | भावात् । तथा सति प्रमाणसंख्यानियमो न व्यवतिष्ठेतेत्युक्तं पुरस्तात् । तस्मादनेन गृहीतग्राहित्वात्कस्यचिद्विज्ञानस्याप्रमाणत्वमुररीकुर्वता महेश्वरज्ञानस्याप्युत्तरोत्तरस्य पूर्वज्ञानपरिच्छिन्नार्थग्राहित्वादप्रमाणत्वं दुःशकं परिहर्तुं ।
यदि इसपर वैशेषिक अपना मन्तव्य यों बतावें कि दूसरे दूसरे प्रमाणोंसे नहीं जाने जा चुके सम्पूर्ण सूक्ष्म, व्यवहित, विप्रकृष्ट, आदि अर्थोका महेश्वरकी ज्ञानसन्तान करके ग्रहण हो रहा है । अतः वह ईश्वर ज्ञानकी संतान गृहीतग्राही नहीं है, अगृहीत विषयों का ग्राहक है, यों कह चुकनेपर आचार्य कहते हैं कि वह वैशेषिकका मन्तव्य प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि इस प्रकार तो घट है, घट है, घट है, ऐसे धारावाहिक ज्ञानको भी गृहीतग्राहीपना न होनेसे प्रमाणपनेका प्रसंग आ जावेगा । धारावाही ज्ञानमें भी ज्ञानोंकी लम्बी सन्तान अगृहीत विषयका ग्रहण कर रही है । यदि उस धारावाहि ज्ञानकी सन्तानका प्रमाण होना स्वीकार कर लोगे, तब उन ही प्रकार प्रमाणान्तरोंसे नहीं गृहीत हो चुके अर्थोका ग्रहण करनेवाले अनुभव, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, आदि ज्ञानोंकी प्रवर्तरही सन्तानको भी अगृहीतग्राहक होनेसे प्रमाणपना हो जाओ । यदि फिर तुम वैशेषिक यों कहो कि अनुभव, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, आदि ज्ञानों की एक सन्तान होनेपर भी अनुभव द्वारा ग्रहण किये जा चुके अर्थमें स्मरणकी और स्मरणसे जाने जा चुके अर्थ में प्रत्यभिज्ञान आदिकी प्रवृत्ति हो रही है । अतः वे स्मरण आदिक गृहीतग्राही होनेसे प्रमाण नहीं हैं, तब तो हम जैन कहेंगे कि प्रथम ज्ञान करके जाने जा चुके अर्थमें उसके उत्तर और उसके भी पीछे पीछे अनेक वह रहे धारावाही विज्ञानों को प्रमाणपना कैसे आ सकता है ! अर्थात् — कैसे भी नहीं । यदि तुम वैशेषिक उसमें विशेष उपयोग होनेसे प्रमाणपना लाओगे तब उस ही कारण यानी विशेष विशेष उपयोग होनेसे ही स्मृति आदिकों को भी प्रमाणपना हो जावो । सभी प्रकारोंसे कोई विशेषता नहीं है । प्रत्युत धारावाही ज्ञानोंकी अपेक्षा अनुभव, स्मरण, प्रत्यभिज्ञानों में विशेष उपयोग हो रहा अच्छा जाना जा रहा है । और तिस प्रकार स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, आदिको I अतिरिक्त प्रमाण माननेपर तुम्हारी नियत की गयी प्रमाणों की संख्या व्यवस्थित नहीं हो सकेगी, इसको हम पहिले प्रकरणों में कह चुके हैं। तिस कारण गृहीतग्राही होनेसे किसी भी विज्ञानको अप्रमाणपना स्वीकार करनेवाले इस वैशेषिक पण्डित करके पूर्वसमयवर्ती ज्ञान द्वारा जाने जा चुके अर्थोका ग्राहक होनेसे महेश्वर के उत्तरोत्तरसमयवर्ती ज्ञानोंका अप्रमाणपना कठिनतासे भी नहीं हटाया जा सकता है । अतः महेश्वर के ज्ञानको अनित्य माननेमें अनेक विपत्तियां खडी हो जायँगी ।