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तत्त्वार्थश्लोकवार्त
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दूसरे पक्षी या पतंगेमें क्रियाको करा देता है । तिसी प्रकार आत्मा क्रिया के कारण गुणोंसे युक्त भी बना रहे और क्रिया रहित भी बना रहे कोई क्षति नहीं है । इस कारण अनुकूल तर्कका अभाव हो जानेसे तुम जैनों का यह " क्रियाकारणगुणत्व " हेतु तो आत्मामें गमन क्रियासहितपनको नहीं साध सकेगा । क्योंकि आकाशके साथ व्यभिचार दोष हो रहा है । पूर्व प्रकरणोंमें वायु वनस्पति के संयोग के वायु आकाश संयोग आकाशमें वर्त रहा क्रियाहेतुगुण साधा जा चुका है । किन्तु आकाश क्रियावान् नहीं है | यहांतक कोई प्रतिवादी कह चुका है, अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कह रहा ह प्रतिवादी यहां यों पर्यनुयोग लगाने योग्य है । अर्थात् — उसके ऊपर यह अभियोग लगा देना चाहिये कि भाई बताओ, क्रियाके हेतुभूत किस गुणसे युक्त आकाश हो रहा है ? हम तो समझते हैं कि आकाशमें कोई भी क्रियाका हेतु गुण नहीं है । यदि तुम वैशेोषिक यों कहो कि वायुसंयोग नामक क्रियाहेतु गुणसे युक्त आकाश है सो यह तो नहीं कह सकते हो। क्योंकि उस आकाशवती वायुसंयोगको क्रियाका हेतुपना असिद्ध है । यदि तुम वैशेषिक पुनः यह कहो कि वनस्पस्तिमें वायु संयोगसे क्रिया हो जाती है । अतः वह वायुसंयोग क्रियाका हेतुभूत मान लिया जाय । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि उस वायुसंयोग के होनेपर भी वृक्षमें क्रियाका अभाव हो रहा है । अर्धरात्रिमें वायुका मन्द संचार होनेपर भी वृक्ष अकम्प रहे आते हैं । यदि तुम विशेषताको प्राप्त हो रहे वायुसंयोगको क्रियाका कारण मानोगे यों कहनेपर तो हम पूछेंगे कि तुम्हारे यहां " अभिघातो नोदनञ्च शद्वहेतुरिहादिमः, शद्बाहेतुर्द्वितीयः स्यात् " इस प्रकार संयोग के दो भेद माने गये हैं । अब फिर तुम. यह बताओ कि कौनसा वह नोदन अथवा अभिघात नामका विशिष्टसंयोग भला क्रियाका कारण है ? तथा यह भी बताओ कि फिर वह नोदन क्या है ? और अभिघात क्या है ? इसके उत्तरमें यदि तुम यों कहो कि शब्दका हेतुभूत संयोग अभिघात है, जैसे कि आट करते हुये ताली बजाते समय हाथों का अभिघात संयोग है और शब्दको नहीं उपजानेवाला संयोग तो नोदन है । शब्द किये बिना हाथ को चुपके M दूसरे हाथ से मिला देना नोदन है । यहां वेगवाले द्रव्यके साथ अन्यद्रव्यका विशिष्ट संयोग ही क्रियाका तुष्ट है, तब तो हम जैन कहेंगे कि वेग ही क्रियाका हेतु हुआ । संयोग गुण तो क्रिया संपादक नहीं बना । क्योंकि उस वेगके होनेपर क्रियाकी उत्पत्तिका अभाव है । यह अन्वयव्यतिरेक पूर्वक वेग और क्रियाका कार्यकारण भाव सिद्ध है । किन्तु आकाशद्रव्यके तो वे गुण नहीं हैं । " क्षितिर्जलं तथा तेजः, पवनो मन एव च । परापरत्वमूर्तत्वक्रियावेगाश्रया अमी " इस सिद्धांत अनुसार तुमने पृथिवी, जल, तेज, वायु, और मन इन पांच द्रव्योंमें ही वेगगुण माना है । आकाशमें वेग नहीं है " षडेव चाम्बरे " आकाशमें संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, शब्द, ये छह गुण माने गये हैं । अतः वेगके नहीं होनेसे क्रिया के हेतुभूत गुणसे युक्त आकाश नहीं है । तिस कारण उस आकाशसे हमारे हेतुका व्यभिचार दोष नहीं लगता है । क्रियाहेतुगुणकत्व इस निर्दोष हेतुसे आत्माका ! गतिसहितपना सिद्ध हो जाता है 1