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________________ ११८.. तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके व्रतस्तेषां भेदैकति चात्मनः करणत्वाभावः संतानांतरकरणवत् विपर्ययो वेत्यनेकांत एवाश्रयणीयः, प्रतीतिसद्भावादाधकाभावाच्च । तथा द्रव्येंद्रियाणामपि परस्परं स्वारंभकपुद्गलद्रव्याच्च भेदाभेदं प्रत्यनेकांतोवबोद्धव्यः पुद्गलद्रव्यार्थादेशादभेदोपपत्तेः । प्रतिनियतपर्यायार्थादेशात्तेषां भेदोपपत्तेश्च । इस उक्त कथनकरके उन इन्द्रियोंका उस इन्द्रियवान् आत्माके साथ सर्वथा भेद और एकान्त अभेदका भी खण्डन कर दिया गया है । देखो, आत्माका इन्द्रियोंके साथ यदि एकान्तरूपसे अभेद माना जायगा तो आत्माके समान इन्द्रियोंको भी कर्तापनका प्रसंग हो जायगा । ऐसी दशामें इन्द्रियां करण नहीं हो सकेंगी अथवा आत्मा और इन्द्रियोंका अभेद माननेपर इन्द्रियोंके समान आत्माको भी करण बन जानेका प्रसंग होगा । तथा आत्मा, इन्द्रिय, दोनोंको कर्ता, करण, दोनों आत्मकपनका प्रसंग हो जावेगा। क्योंकि सर्वथा अभेदपक्षको पकड लेनेपर किसीमें कोई विशेष प्रकारका अन्तर नहीं है । तथा उन इन्द्रियोंका तद्वान् उस आत्माके साथ यदि सर्वथा भेद माना जायगा तो अन्य आत्माओंकी इन्द्रियोंके समान प्रकरण प्राप्त आत्माकी भी ये इन्द्रियां करण नहीं हो सकेंगी। अर्याद-दूसरेकी इन्द्रियां सर्वथा भिन्न हो रहीं जैसे हमारे ज्ञानमें करण नहीं हो पाती हैं, उसी प्रकार भिन्न हो रही हमारी आत्मासे भी हमारी इन्द्रियां करण नहीं हो सकेंगी अथवा विपर्यय ही हो जावेगा । यानी हमारी भिन्न इन्द्रियोंके समान दूसरोंकी इन्द्रियां भी हमारे ज्ञानमें करण बन बैठेंगी। इस कारण कथंचित् भेद, अभेदस्वरूप अनेकान्तका ही आश्रय ग्रहण करना चाहिये । कथंचित् भेद, अभेदके स्याद्वाद सिद्धांतमें प्रमाणसिद्ध प्रतीतियोंका सद्भाव है और बाधक प्रमाणोंका अभाव है। तिसी प्रकार उक्त भावेंद्रियोंके समान पांचों द्रव्येंद्रियोंका भी परस्परमें और अपनेको बनानेवाले पुद्गल द्रव्यसे हो रहे भेद अभेदके प्रति अनेकान्त समझ लेना चाहिये । द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नयका सर्वत्र अधिकार है। पुद्गल द्रव्यस्वरूप अर्थकी विशेष अपेक्षासे तो द्रव्येंद्रियोंका अभेद बन रहा है और स्पर्शन, रसना, आदि प्रत्येकके लिये नियत हो रही पर्यायस्वरूप अर्थकी अपेक्षा उन द्रव्येन्द्रियोंका भेद सिद्ध हो रहा है । सप्तभङ्गी अनुसार एकत्व और नानात्वसे अतिरिक्त आगेके पांच भंग भी लगा लेना। अभ्यन्तरनिर्वृत्ति स्वरूप द्रव्येद्रियोंका परस्पर या उपादान कारण आत्माके साथ कथंचित् भेदाभेद है । इतींद्रियाणि भेदेन व्याख्यातानि मतांतरं । व्यवचिच्छित्सुभिः पंचसूत्र्या युक्त्यागमान्वितैः ॥२॥ .. यो यहांतक युक्ति और आगम प्रमाणसे अन्वित हो रहे तथा इन्द्रियोंकी एक, दो, ग्यारह, इन संख्याओंको माननेवाले अन्य मतोंके व्यवच्छेद करनेकी इच्छा रखनेवाले श्री उमास्वामी महाराजने पांच सूत्रों के समुदाय द्वारा भिन्न भिन्न करके पांच इन्द्रियोंको बखान दिया है । अर्थात्-" पंचेंद्रियाणि "
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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