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तत्वार्थ लोकवार्त
होता तो " संसारिणो मुक्ताश्च समनस्कामनस्का " इस प्रकार दोनों सूत्र मिलकर एक योग कर दिया जाता। यों कर देनेपर बडी सरलता से आक्षेपकारको अभिप्रत हो रहे संसारी जीव समनस्क हैं और मुक्त जीव अमनस्क हैं, इस अर्थकी प्राप्ति हो सकती थी । इस सूत्र में संसारी जीवोंका ही सम्बन्ध है, इसके लिये दूसरी बात यह है कि अगले वक्ष्यमाण ऊपर के सूत्र में संसारी शद्वकी निकटता हो रही है । भविके " संसारिणस्त्रसस्थावरा, ” ऐसे इस सूत्र में नियम से संसारिणः ऐसा शब्द प्रयोग हो रहा है। वही “ संसारिणः ” 66 यह शब्द समनस्कामनस्का: इत्याकारक इस सूत्रमें और सूत्रमें मध्यस्थ होनेके कारण सम्बन्धको प्राप्त हो जाता है । " देहली दपिक ” न्यायसे “ संसारिणः " शद्वका दोनों ओर अन्वय है । तिस कारणसे यथासंख्यका भले प्रकार प्रसंग या ज्ञान हो जाना नहीं बन पाता है ।
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सस्थावरा इस उत्तरवर्त्ती
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अथवा संसारिणी मुक्ताश्चेत्यत्र संसारिण इति वचनमनेन संबध्यते न मुक्ता इति तेषां प्रधानशिष्टत्वान्मुक्तानामप्रधानशिष्टत्वात् । तथा सति समनस्कामनस्काः त्रसस्थावरा इति यथासंख्याप्रयोगः, सर्वत्रसानां समनस्कत्वासिद्धेः मध्यस्थसंसारिग्रहणामिसंबंधेपि वा पृथग्योगकरणान्न त्रसस्थावरयथासंख्याभिसंबंधः स्यात् अन्यथैकमेव योगं कुर्वीत, तथा च द्विःसंसारिग्रहणं न स्यात् । ततः संसारिण एव केचित्समनस्काः केचिदमनका इति सूत्रार्थो व्यवतिष्ठते ।
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• अथवा एक बात यह भी है कि " संसारिणो मुक्ताश्च इस पूर्ववर्त्ती सूत्रमेंसे " संसारिणः " ये वचन ही इस समनस्कामनस्काः इस सूत्र के साथ सम्बन्धित हो जाता I मुक्ता इस शब्दका इस सूत्र के साथ सम्वन्ध नहीं 1 क्योंकि " प्रधानाप्रधानयोः प्रधाने सम्प्रत्ययः प्रधान और अप्रधानका अवसर आनेपर प्रधान अर्थमें ही सुलभतासे ज्ञान उपज बैठता है । इस प्रकरण में प्रधान हो रहे उन संसारी जीवोंको प्रधान रूपसे शिष्टपना है तथा मुक्तोंको अप्रधान रूपसे परिशेष न्याय द्वारा शिष्टपना है अर्थात्-विधेयप्रतिपादक उत्तरवर्ती न्यारे सूत्रमें पूर्व सूत्रोक्त उद्देश्यों का उद्देश्यके
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ते स्थानको भरनेके लिये " अवशेष न्याय " करके ही सम्मेलन हो सकता था । अतः प्रधानरूपसे अवारीष्ट हो रहे उद्देश्यका ही अन्वय इस सूत्रमें माना जायगा । तैसा होनेपर " स्मनस्कामनस्काः इस सूत्र का उत्तरवर्ती " त्रसस्थावराः इस सूत्र के साथ भी यथासंख्यसे प्रयोग नहीं हो सकता है । यानी त्रस समनस्क हैं और स्थावर जीव मनोरहित हैं, ऐसा यथासंख्य भी सिद्धान्तसे बाधित है I सम्पूर्ण द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, आदि त्रसोंको समनस्कपना असिद्ध है केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय त्रस ही नह हैं । इच्छाके वशसे सम्बन्ध हुआ करता है । इस सूत्र में उत्तरसूत्रके संसारी पदका ही सम्बन्ध करना, त्रस स्थावरका नहीं । मध्यमें स्थित हो रहे संसारी शब्द के ग्रहणका ठीक सम्बन्ध होनेपर भी पृथक्सूत्र योग करसेसे त्रस और स्थावर के साथ इस सूत्र का यथासंख्यरूपकरके पूरा सम्बन्ध नहीं हो सकेगा
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