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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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मनसो द्रव्यभावभेदस्य सन्निधानात्समनस्काः तदसंनिधानादमनस्काः । समनस्काश्चामनस्काश्च समनस्कामनस्का इति समनस्कग्रहणमादौ युक्तमभ्यर्हितत्वात् । संसारिमुक्तप्रकरणात् यथासंख्यप्रसंग इति चेत् तथेष्टं संसारिणामेव समनस्कत्वान्मुक्तानाममनस्कत्वादित्येके । तदयुक्तं । सर्वसंसारिणां समनस्कत्वप्रसंगात् ।
आठ पत्रवाले कमलके समान द्रव्यमन तो संज्ञी जीवके हृदयस्थलमें होता है। पांच पौगलिक इन्द्रियों के समान वह मन भी अतीन्द्रिय है, जो कि अंगोपांग नामकर्मका उदय होनेपर मनोवर्गणासे निष्पन्न होता है । तथा वीर्यान्तराय कर्म और नोइन्द्रियावरण नामक मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाली जीवकी विशुद्धि तो भावमन है । इन द्रव्य, भाव, दो भेदोंको धार रहे मनकी सन्निकटता से जीव समनस्क माने जातें हैं और उन दोनों मनोंके सन्निधान नहीं होनेसे अनेक जीव अमनस्क कहे जाते हैं । समनस्क जीव अमनस्क जीव यों इतरेतर द्वंद्व करनेपर " समनस्कामनस्का ऐसा वाक्य बन जाता है । सूत्रकारद्वारा समनस्क जीवों का सूत्रके आदिमें पूज्य होने से समुचित ही है। यहां कोई आक्षेप करता है कि पूर्व सूत्र अनुसार संसारी
"
ग्रहण करन
और मुक्त
हैं
प्रकरण होनेसे इस सूत्र में यथाक्रम दो संख्या के अनुसार संसारी समनस्क होते और मुक्त मनस्क हैं ऐसे अर्थ करनेका प्रसंग हो जायगा । यो प्रसंग उठाने पर कोई एक पण्डित उत्तर देनेके लिये बांचमें अनाधिकार कूद बैठते हैं कि तिस प्रकार अर्थ करना इष्ट 1 क्योंकि संसारी जीवों को ही मनसहितपना है और मुक्तोंको अमनस्कपना है । पूर्वसूत्रका इस सूत्र के साथ यथासंख्य अन्वय करनेमें कोई क्षति नहीं दीखती है। अब श्री विद्यानन्द स्वामी कहते हैं कि उन एक पण्डितजीका कहना युक्तियों से रीता है । क्योंकि यों तो सम्पूर्ण एकेन्द्रिय, द्विइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, और असंज्ञिपंचेन्द्रिय इन संसारीजीवोंको भी मनसहितपना बन बैठेगा, जो कि इष्ट नहीं है ।
कुर्तस्तर्हि यथासंख्याऽप्रसंगः, पृथग्योगकरणात् । यथासंख्यं तदभिसंबंधष्टौ संसारिणो मुक्ताश्च समनस्कामनस्का इत्येकयोगः क्रियेत उपरि संसारिवचनप्रत्यासत्तेश्च । संसारिणस्त्रसस्थावरा इत्यत्र हि संसारिण इति वचनं समनस्कामनस्का इत्यत्र संबध्यते त्रसस्थावरा इत्यत्र च मध्यस्थत्वात् ततो न यथासंख्यसंप्रत्ययः ।
किसीका प्रश्न है कि यों है तब तो बताओ कि यहां यथासंख्यका प्रसंग कैसे नहीं हुआ ? कोरा मनमाना सिद्धान्त इष्ट कर लेनेसे किसी न्यायप्राप्त प्रसंगका निवारण नहीं हो सकता है । इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि पृथक् पृथक् योग करनेसे यानी न्यारा सूत्र बनाने से वह प्रसंग नहीं हो । इस सूत्र संसारी जीवका ही सम्बन्ध हो रहा है । यदि सूत्रकारको आक्षेपकार के विचार अनुसार यथासंख्य रूप से उन पूर्व सूत्रोक्त उद्देश्योंका और इस सूत्रमें कहे गये विधेयोंका सम्बन्ध अभीष्ट
पाता