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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
गुणस्थानवर्ती भगवान् नोसंसारी जीवोमें नहीं गिने जा सकते हैं। तथा तिस ही कारणसे यानी संसार और संसारके पांचों कारणका अभाव हो जानेसे वे अयोगी महाराज संसारी भी नहीं हैं। हां, उन संसारी, नोसंसारी और असंसारी इन तीनों जातिके जीवोंसे पृथग्भूत हो रहे तो वे निश्चय किये जा रहे हैं । अतः च शब्द करके विशेष रूपसे इष्ट हो रहे तेरहवें गुणस्थानवर्ती ( बारहवें गुणस्थानवर्ती भी ) और चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीवोंका समुच्चय हो जाता है। " न कर्मधारयः स्यान्मत्त्वर्थीयो बहुव्रीहिश्चेदर्थप्रतिपत्तिकरः ” यह परिभाषा आनित्य है । अतः असंसारी और नोसंसारी ये शब्द भी साधु समझे जाय । ".
तथान्ये वर्णयंति-मुक्तानां परिणामांतरसंक्रमाभावादुपयोगस्य गुणभावप्रदर्शनार्थ च शद्धोपादानमिति, तन्न बुध्द्यामहे तेषां नित्योपयोगसिद्धेः पुनरुपसंहारप्रादुर्भावाभावात् । तत्रोपयोगव्यवहाराभावात् गुणीभूतोत्र तूपयोग इति चेति ।।
___ तथा श्री अकलंकदेवके सिद्धान्त अनुसार अन्य दूसरे पण्डित यो वर्णन करते हैं कि मुक्त जीवोंके अन्य दूसरे दूसरे परिणामोंका संक्रमण होता नहीं है । इस कारण उन मुक्तोंके गौणरूपसे उपयोगका सद्भाव बढिया दिखलाने के लिये श्री उमास्वामी महाराजने इस सूत्रमें च शद्बका ग्रहण किया है । अर्थात्-संसारी जीवोंके तो दर्शनोपयोगके पश्चात् ज्ञानोपयोग या चाक्षुषप्रत्यक्षके पीछे रासनप्रत्यक्ष और उसके भी पीछे श्रुतज्ञान इत्यादिरूपसे एक उपयोगको बदल कर दूसरे उपयोग लग जाना घटित हो जाता है । तभी तो मेरा इस पदार्थमें उपयोग लगा हुआ है, अमुक पदार्थमें उपयोग नहीं लगता है, मुनिजन आत्मतत्त्वमें बहुत देरतक उपयोग लगाये रहते हैं, आखें खुली रहते हुये भी उसकी ओर उपयोग न होनेसे मैं उस पुरुषको नहीं देख सका, न्याय ग्रन्थोंके पढनेमें उपयोग लगाओ, इत्यादिक व्यवहार प्रसिद्ध हो रहे देखे जाते हैं। किन्तु केवलज्ञानी मुक्त जीवोंके किसी उपयुक्त दशाको छोडकर अन्य दूसरे पदार्थमें उपयोग लगता नहीं है। त्रिलोक त्रिकालवर्ती पदार्थ सर्वदा उनके ज्ञानमें झलकते रहते हैं । ऐसी दशामें कहांसे हट कर उपयोग कहां दूसरे विषयमें लगे ? विद्यमान स्थानोंपर सर्वत्र व्याप रहा आकाश यदि जावे भी तो कहांसे खिसक कर कहां जावे ? इसी प्रकार एक विषयको छोडकर दूसरे विषयको पकडनेवाला मुख्य उपयोग केवलज्ञानियोंमें नहीं माना गया है । अतः मुक्तजीवोंके उपयोगकी गौणता दिखलानेके लिये व्यवच्छेदक च शब्द सूत्रमें डालना आवश्यक है, यों कह चुकनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि उस अकलंकदेवके रहस्यको हम नहीं समझ रहे हैं । उन मुक्तजीवोंके नित्य ही उपयोगकी सिद्धि हो रही है । पुनः पुनः न्यारी जातिय उपयोगोंका निकटवर्ती संहार या प्रादुर्भाव नहीं होता है । एकसा सदा चमक रहा केवलज्ञान वर्त्त रहा है । उसमें लोकप्रसिद्ध हो रहे उपयोगके व्यवहारका अभाव है। अतः इन मुक्त जीवोंमें तो उपयोग अप्रधानभूत बना बनाया है । इसके लिये च शद्बकी आवश्यकता नहीं दीखती । व्यर्थ होकर भी च शब्द इस अप्रकृत अर्थका ज्ञापन नहीं कर सकता है । जैसे कि