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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
ममाविद्यापक्षयो नान्येषामित्यप्यविद्याविलसितमेवेलि चेत्, सर्वोप्येवं संप्रतिपद्यते तवैव इत्थं प्रतिपत्तौ परेषामप्रतिपत्तौ तु न कदाचिद्विरुद्धधर्माध्यासान्मुच्यते । ततोयं प्रत्यात्मदृष्टनात्मभेदेन बाधितः संसार्यात्मैकत्ववादः ।
यदि अद्वैतवादी यों कहें कि मैं जो यह मान रहा हूं कि मेरे ही अविद्याका प्रक्षय हो रहा है, अन्य जीवोंके अविद्याका प्रक्षय नहीं है, सच पूछो तो यह भी अविद्याका विलास ही हुआ कहना चाहिये । यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि क्योंजी, जब कि सभी संसारी जीव एक ही हैं तो सभी जीव इस प्रकार भला समझ बैठेंगे कि मुझे ही अविद्याका प्रक्षय हो गया है। अन्योंके नहीं। यह अविद्याकी चेष्टा है । किन्तु हम देखते हैं कि तुम्हारे विचार अनुसार कोई भी जीव ऐसा नहीं समझ बैठा है, और जब कि तुमको ही इस प्रकारकी प्रतिपत्ति हो रही है, अन्य जीवोंके तो ऐसा विश्वास नहीं हो रहा है, तब तो आप कभी भी विरुद्ध धर्मोके आरूढ हो जानेसे नहीं छुट्टी पा सकते हैं । भावार्थ-तुम्हारी आत्मामें ही यह श्रद्धा जम गयी है कि किसी जीवके अविद्याका क्षय और किसी जीवके अविद्याका क्षय नहीं, यह सब भेदव्यवहार अविद्याका ही नग्ननृत्य है । वास्तविक नहीं है । किन्तु फिर दूसरी आत्माओंमें ऐसी अन्धश्रद्धा हो रही नहीं देखी जाती है। अतः यही तो आत्माओंमें परस्पर भेदके साधक हो रहे विरुद्ध धर्मोका अधिकार जमा लेमा है। तिस कारणसे प्रत्येक आत्मामें स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष द्वारा देखे जा रहे आत्माके विभिन्नपनेकरके यह सम्पूर्ण संसारी आत्माओंके एकपनका पक्ष परिग्रह करना बाधाग्रसित हो जाता है। यहांतक कारिकामें कहे गये " दृष्टबाधित ” अंशका व्याख्यान कर दिया जा चुका है । अब उस एकत्वके प्रवादको " इष्ट " प्रमाणोंसे बाधित बना रहे हैं।
तथेष्टेनापि प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावादिनेति प्रदर्शितप्रायं ।
तिसी प्रकार अद्वैतवादियोंका यह संसारी आत्माओंके एकपनका सिद्धान्त इष्ट हो रहे प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव, पितृपुत्रभाव, आदि करके भी बाधा प्राप्त हो जाता है । इस बातको कई बार बढिया ढंगसे पहिले प्रकरणोंमें हम दिखला चुके हैं । अर्थात्-कोई समझाये जाने योग्य शिष्य है, दूसरा समझानेवाला गुरु है, एक राजा है, दूसरा प्रजा है, संसारमें एक जीव न्याय करनेका अधिकारी है, दूसरा अपराध करनेवाला अभियुक्त है, इत्यादिक रूपसे इष्ट हो रहे भेदभावसे वह संसारी जीवोंके एकपनका कदाग्रह बाधित हो जाता है। अनेक अनुमान या युक्तियोंसे भी उक्त एकपनेमें बाधायें प्राप्त हो जाती हैं।
___ तथा मुक्तात्मनोप्येकत्वे मोक्षसाधनाभ्यासवैफल्पं, ततोन्यस्य मुक्तस्यासंभवात् । संभवे वा मुक्तानेकत्वसिद्धिः। यो यः संसारी निर्वाति स स परमात्मन्येकत्र लीयत इत्यप्ययुक्तं, तस्यानित्यत्वप्रसंगात् । तथा च कृत्स्नस्तदेकत्वपवादः इत्यसावपि दृष्टेष्टबाधितः ।