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________________ तत्वार्थ श्लोक वार्तिके संसारिणस्तावदेकत्वे जननमरणकरणादिप्रतिनियमो नोपपद्यते । भ्रांतोसाविति चेन्न, भवत इव सर्वस्य तदुद्भ्रांतत्वनिश्चयमसंगात् ममैव तनिश्चयस्तदविद्यामक्षयादिति चेन्न, सर्वस्य तदविद्यामक्षयप्रसंगात् । अन्यथा त्वत्तो भेदप्रसक्तिर्विरुद्धधर्माध्यासात् । देखो, पहिले कहे गये संसारी जीवको यदि एक ही माना जायगा तो जन्म लेना मरण करना, आदिका प्रत्येक आत्मामें नियम हो रहा नहीं बन सकता है । अर्थात् - देवदत्तका जन्म हुआ है भवदत्तने मरण किया है, इन्द्रदत्त अपनी आंखोंसे देखता है, जयचन्द्र अपने मनमें विचारता है, एक पण्डित है, दूसरा मूर्ख है, तीसरा नीरोग है, चौथा सुखी है, इत्यादिक प्रत्येक प्रत्येक जीवकी नियत हो रहीं व्यवस्थायें नहीं बन सकती हैं । जैसे कि आकाशको सर्वथा एक माननेपर अनेक द्रव्योंमें सम्भवनेवाले अनेक विरुद्धधर्म उसमें नहीं ठहर पाते हैं । संसारी जीवोंको एक ही जीव मान लेनेपर एकके उपज जानेपर सबका जन्म हो जायगा और एकके मर जानेपर सब मर जायेंगे । एकके पण्डित, सुखी, पुल्लिंग, क्रोधी, तत्त्वज्ञानी, बन जानेपर सभी पण्डित आदि बन बैठेंगे । भेदभाव मिट जायगा । यदि एक ही संसारी जीवको माननेवाला पण्डित यों कहे कि वह जन्म, मरण, आदिका प्रतिनियम करना तो भ्रान्त है, जैसे कि स्वप्नके व्यवहार भ्रान्त है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि वह प्रतिनियम यदि भ्रान्त है तो आपके समान सभी जीवों को उसकी भ्रान्तताका निश्चय हो जाना चाहिये। जैसे कि सूर्यविमान या चन्द्रविमान के अल्पपरिमाणको विषय करनेवाले ज्ञानका भ्रान्तपना सबको निर्णीत हो रहा है | स्वप्नकी विकल्पनाओंको सभी जीव भ्रान्त माननेके लिये उद्युक्त हैं । किन्तु जन्म, मरण, बुढापा, युवावस्था, मनुष्य, पशु, आदि प्रतिनियत अवस्थाओंको आप अद्वैतवादी भले ही भ्रान्त कहते फिरें, किन्तु सभी विद्वान् तो उसके भ्रान्तपनका अनुभव नहीं कर रहे हैं । यदि तुम अद्वैतवादी यों कहो कि सभी विद्वानों को उस प्रति नियमके भ्रान्तपनके निश्चयका प्रसंग यों नहीं आता है कि उनको अविद्या लगी हुई है । सभी बालक अपने अपने डण्डेमें घोडा जाननेकी भ्रान्तिको अभ्रम जान बैठे हैं। हां, अविद्याका प्रकृष्ट क्षय हो जानेसे मुझे अद्वैतवादीको ही उन विशेष व्यवस्थाओं के भ्रांतपनका निश्चय हो सका है। आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना, जब कि आत्मा एक ही है तो तुम्हारे समान सभी जीवोंको उसमें हो रही अविद्या के प्रकर्षरूपसे क्षय हो जानेका प्रसंग हो जायगा ! अन्यथा यानी तुम अपनेमें तो अविद्याका क्षय मानो और दूसरोंके अविद्याका प्रक्ष मानो इस अन्य ढंगसे तो तुमसे उन अन्य जीवोंको भिन्न हो जानेका प्रसंग आया । क्योंकि विरुद्ध धर्मोका अधिकार हो जानेसे भेद होना ही चाहिये । तुममें अविद्याका प्रत्यक्ष है और अन्य सब जीवोंमें अधिद्या घुस रही है । यह स्पष्टरूपसे विरुद्धधर्म अधिकार किये बैठे हैं । जो अनेक आत्माओंका भिन्नपना साथ देंगे। तुम बालक नहीं हो, इस बातको स्वयं विचार सकते हो । 1 . १०२
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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